13 फ़रवरी 2019

सकारात्मक सोच से मिलती है ख़ुशी

ख़ुशी शब्द देखने में जितना छोटा है, उसकी उतनी ही व्यापकता हैं. सभी के लिए ख़ुशी के अलग-अलग मायने हैं, अलग-अलग सन्दर्भ हैं. किसी के लिए बहुत ही छोटी समझी जाने वाली स्थिति से बहुत बड़ी सी ख़ुशी उत्पन्न हो सकती है तो किसी के लिए बड़े से बड़ी स्थिति भी ख़ुशी पैदा नहीं कर पाती है. ख़ुशी के अपने अलग-अलग मानक हैं. ख़ुशी किसी चीज को प्राप्त कर लेने का नाम नहीं है. ख़ुशी किसी से मिल लेने भर का नाम नहीं है. ख़ुशी किसी सफलता के प्रत्युत्तर में जन्मने वाली स्थिति नहीं. ख़ुशी खुद को तनावरहित बनाये रखने की अवस्था भी नहीं. ख़ुशी संतुष्टि की भावना नहीं. ख़ुशी शारीरिक अवस्था भी नहीं है. ख़ुशी को विशुद्ध मानसिक अवस्था भी नहीं कहा जा सकता है. हो सकता है कोई आर्थिक सशक्तता को प्राप्त कर लेता हो मगर उसे फिर भी ख़ुशी न मिलती हो. हो सकता है कोई आर्थिक स्तर पर बहुत ही कमजोर हो मगर वह खुश रहता हो. ख़ुशी एक स्थिति कही जा सकती है जो व्यक्ति को खुश रहने का अवसर उपलब्ध करवाती है. इस अवसर का स्वरूप कुछ भी हो सकता है, कैसा भी हो सकता है.

कई बार लगता है कि मानव स्वभाव इस तरह का है ही कि वह ख़ुशी को बहुत लम्बे समय तक अपने साथ रख नहीं पाता है. उसके ऊपर किसी न किसी दुःख को, कष्ट को, नाखुशी को बैठा देता है. उसके सामने एक पल में एकसाथ आने वाली ख़ुशी और ग़म में वह उस ग़म को ज़िन्दगी भर ढोता रहता है जबकि उसी समय साथ आई ख़ुशी को तत्काल भुला बैठता है. एक बहुत बड़ी ख़ुशी के अवसर पर भी वह छोटे से छोटे दुःख को अपने साथ घसीट कर लाने से नहीं चूकता है जबकि ऐसा उसके द्वारा दुःख के अवसर कर नहीं किया जाता है. देखा जाये यदि ख़ुशी परिस्थितिजन्य है तो दुःख भी इससे इतर नहीं है. यदि ख़ुशी को मानसिक अवस्था माना जाये तो दुःख भी उसी श्रेणी में शामिल होता है. यदि नकारात्मकता दूर करने के परिणामस्वरूप ख़ुशी का जन्म होता है तो फिर ध्यान रखना होगा कि सकारात्मकता समाप्त होने से ही दुःख का उदय हुआ है. ऐसे में उसी सकारात्मकता को पुनः क्यों नहीं प्राप्त किया जाता है? क्यों नहीं दुःख के मूल में छिपे नकारात्मक भाव को दूर करके ख़ुशी को गले लगाया जाता है? भारतीय समाज में बहुधा देखने में आता है कि एक दुःख के साये में व्यक्ति पूरी जिंदगी बिता देता है. उसका रहन-सहन, उसकी जीवन-शैली, उसकी कार्यशैली, उसकी दिनचर्या आदि सबकुछ उसी एक दुःख के द्वारा संचालित होने लगती है. ऐसे में उसी नकारात्मकता को दूर करने की आवश्यकता है जिसके दूर होने से ख़ुशी मिली थी. उसी सकारात्मकता को बनाये रखने की जरूरत है जिसके न होने से दुःख दिखाई देने लगा है.

ख़ुशी या दुःख पूरी तरह से व्यक्ति की अपनी मानसिक अवस्था है. उसे अपने वर्तमान के साथ जीवन जीने की कला सीखने की आवश्यकता है. जो व्यक्ति अपने वर्तमान में अतीत की परेशानियों को खींच ले आते हैं और उसी वर्तमान को बोझ बनाकर भविष्य तक ले जाना चाहते हैं वही ख़ुशी का आनंद नहीं ले पाते हैं. ख़ुशी को दीर्घजीवी भी बनाया जा सकता है बशर्ते उसका स्वरूप स्वतंत्र छोड़ना होगा. उसे किसी भी तरह के दुःख के साये में पलने को नहीं छोड़ना होगा. हमें हमारी ख़ुशी हमारी भावनाओं में खोजनी होगी. हमें हमारी ख़ुशी के लिए अपने जीवन की कठिनता को छोड़ना होगा.

खुशियों को लम्बे समय तक साथ बनाये रखने के लिए व्यक्ति को दिखावे की संस्कृति से दूर होना पड़ेगा. यह भी ध्यान देना होगा कि जो बातें व्यक्ति के दिल-दिमाग को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती हैं उनसे न केवल निपटना होगा बल्कि उन्हें हमेशा के लिए दूर करना होगा. व्यक्ति को उन्हीं कामों की तरफ खुद को एकाग्र करने की आवश्यकता है जो उसके दिल-दिमाग को पसंद आते हों. आवश्यक नहीं कि सिर्फ धनोपार्जन के लिए ही काम किया जाये. ऐसे काम करने के साथ-साथ अपनी ख़ुशी को लम्बा बनाने के लिए वे काम भी करने चाहिए जिन्हें शौक कहा जा सकता है, पसंद कहा जा सकता है, पैशन कहा जा सकता है. इस तरह के क्रियाकलापों से, व्यवहार से, प्रक्रिया से ख़ुशी प्राप्त की जा सकती है. किसी भी व्यक्ति को इसका आभास होना ही होना चाहिए कि ख़ुशी उसके भीतर ही है, बस उसे देखने-समझने की आवश्यकता है.


उक्त आलेख दैनिक जागरण (राष्ट्रीय संस्करण) दिनांक 13-02-2019 के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ.. 
https://epaper.jagran.com/epaper/13-feb-2019-262-national-edition-national-page-8.html


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