प्रेम,
प्यार, मुहब्बत, इश्क.... ये ऐसे शब्द हैं जिन्हें किसी के सामने बोल भर दीजिये,
बस फिर ऐसा लगता है जैसे कोई अजूबा सा काम कर दिया गया है. अभी आपने किसी से इश्क
नहीं किया है. किसी को आपसे मुहब्बत नहीं हुई है. किसी के साथ आप इश्क की गिरफ्त
में नहीं हैं. इसके बाद भी सामने वाले के दिमाग में एक छवि उभर कर स्थायी भाव रख
लेती है. इस स्थायी भाव में एक लड़का होगा (वो आप ही होंगे) और एक लड़की होगी. इसके
आगे के भाव वह अपने आप बनाता-संवारता रहेगा. समझा जा सकता है कि इस भाव में
क्या-क्या भाव बनते होंगे. इसके पीछे समाज की प्रेमपरक सोच तो है ही, प्रेम को
लेकर बना नजरिया भी इसका बहुत बड़ा कारण है. आज भी समाज में प्रेम का सीधा सम्बन्ध
स्त्री-पुरुष के दैहिक संबंधों से लगाया जाने लगता है. ये अपने आप मान लिया जाता
है कि प्रेम करने वाले दो विषमलिंगियों के बीच शारीरिक सम्बन्ध बने ही बने होंगे.
ये माना जाने लगता है कि दो प्रेम करने वाले आपस में शादी करेंगे ही. ये भी समाज
में स्थापित मान्यता है कि दो प्रेम करने वालों को आपस में शादी करनी ही चाहिए. समाज
में प्रेम सम्बन्धी मान्यताओं को लेकर इतना भ्रम है कि प्रेम का वास्तविक स्वरूप
सामने नहीं आ पाया है.
सवाल ये
कि कहाँ लिखा है कि दो प्रेम करने वालों के बीच शारीरिक सम्बन्ध बने ही होंगे? ये
कहाँ लिखा है कि दो प्रेम करने वालों को आपस में शादी करनी ही चाहिए? ये कहाँ की
मान्यता है कि बिना शादी किये प्रेम सफल नहीं कहा जाता? ये किस विचारक ने कहा है
कि प्रेम का अंतिम स्वरूप शादी ही है? असल में ये समाज द्वारा बनाये गए कुछ
नियम-कायदे हैं जो समय के साथ बदलने चाहिए थे मगर उनमें ऐसा नहीं हुआ. यहाँ बिना
किसी पूर्वाग्रह के ध्यान रखना होगा कि यही वह समाज है जहाँ राधा-कृष्ण की पूजा की
जाती है. यही वह समाज है जहाँ मीरा को स्त्री-सशक्तिकरण का मानक माना जाता है.
क्या इन दोनों ने कृष्ण के साथ विवाह किया था? क्या इन दोनों ने कृष्ण के साथ
शारीरिक सम्बन्ध बनाये थे? क्या दोनों का प्रेम असफल माना जायेगा? यदि दोनों का
प्रेम असफल है तो आज भारतीय समाज दोनों की पूजा क्यों करता है? क्यों राधा-कृष्ण
के चित्र अपने पूजागृह में लगाये होता है? क्यों नहीं राधा की जगह कृष्ण की पत्नी
रुक्मिणी की तस्वीर लगाई गई होती है?
असल में
प्रेम एक विशुद्ध पावन अवधारणा है जो किन्हीं दो के बीच की भावनात्मक स्थिति है.
इसमें दोनों सजीव हो सकते हैं, एक सजीव एक निर्जीव हो सकता है. यहाँ प्रेम करने
वालो दो विषमलिंगी भी हो सकते हैं, दो समलिंगी भी हो सकते हैं. प्रेम करने वाले
प्रेमी-प्रेमिका हो सकते हैं, अन्य दूसरे रिश्ते वाले भी हो सकते हैं. यहाँ प्रेम
का वास्तविक स्वरूप समझने की जरूरत है. प्रेम कोई ऐसा स्त्रोत नहीं जो एक व्यक्ति
से करने के बाद सूख जाता है. प्रेम कोई ऐसा धन नहीं जो एक पर खर्च कर दिया गया तो अन्य
किसी के लिए शेष नहीं बचता है. प्रेम एक तरह की भावना है, एक तरह की संवेदना है जो
एक या अनेक से हो सकती है. एकसाथ कई से हो सकती है. समान रूप से हो सकती है. यहाँ
ध्यान यह रखने की जरूरत होती है कि प्रेम संबंधों में सामने वाले के साथ किसी तरह का
विश्वासघात न हो. इसके पीछे कारण यह कि प्रेम आपस में विश्वास की माँग करता है. किसी
भी व्यक्ति का यह कहना कि एक बार प्रेम करने के बाद किसी दूसरे से कैसे प्रेम किया
जा सकता है, सिद्ध करता है कि उसके दिल में प्रेम नहीं वरन एक व्यक्ति विशेष के
प्रति आकर्षण का भाव बना रहा है. प्रेम का सम्बन्ध स्पष्ट रूप से सामने वाले के
प्रति भावनात्मक, सकारात्मक भावना रखना है. ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई व्यक्ति एक
व्यक्ति के प्रति भावनात्मक रूप से सकारात्मक रहे और अन्य व्यक्तियों के प्रति
नकारात्मक हो जाये.
असल में
समाज में प्रेम को लेकर एक तरह की मानसिकता बनी रही है जो समय के साथ-साथ रूढ़ हो
गई है. अब यहाँ प्रेम का सम्बन्ध सिर्फ एक व्यक्ति से, पहली नजर से माना जाने लगा
है. ऐसा भी माना जाने लगा है कि जिससे व्यक्ति प्रेम करता है यदि उससे शादी नहीं
होती है तो प्रेम असफल माना जायेगा. ये भी माना जाने लगता है कि जिस व्यक्ति से
प्रेम हो यदि उससे शादी न हो पाए तो किसी दूसरे से प्रेम करना अपराध है. यह भी
माना जाता है कि एक समय में एक ही व्यक्ति से प्रेम किया जा सकता है. यदि एक समय
में एक व्यक्ति एक से अधिक लोगों से प्रेम करता है तो वह भी अपराध है. यह भी
स्वीकार जाता है कि प्रेम की परिणति यदि विवाह के रूप में हो जाये तो फिर दोनों को
किसी अन्य से प्रेम करने की अनुमति नहीं. ये भी सामने सी अवधारणा है कि शादीशुदा
जोड़ों को किसी अन्य से प्रेम करने की अनुमति नहीं. ये सारी रूढ़ियाँ समाज में एक तरह
से प्रेम के विस्तार पर अंकुश लगाती हैं. प्रेम का सीधा सा सम्बन्ध दो आपसी लोगों
में भावनात्मकता का विस्तार है. यहाँ यदि उनके मन में आपस में एक-दूसरे के लिए छल,
विश्वासघात, धोखा नहीं है तो प्रेम का यही सफलतम रूप है. देखा जाये तो प्रेम किसी
संकुचन का नहीं वरन विस्तार का नाम है. काश! इसे समझा जा सकता, प्रेम करने वालों
द्वारा भी, प्रेम संबंधों की ठेकेदारी निर्धारित करने वालों द्वारा भी.
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