आज फिर बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ कार्यक्रम में शामिल होने का अवसर
मिला. ले-दे कर वही बातें. लगभग सभी वक्ताओं द्वारा पुरुषों को कोसने वाली
मानसिकता. लगभग सभी के द्वारा महिलाओं को अपने अधीन बनाये रखने वाली बातें.
इक्कीसवीं सदी में आने के बाद भी इस मानसिकता से न तो स्त्री मुक्ति पा सकी है और
न ही पुरुष कि वे एक विभेद को दूर करने के लिए एक और विभेद को जन्म दे रहे हैं.
कोई पुरुष किसी महिला के बारे में क्या विचार रखता है, ये बात तो बाद में विचारणीय
है उससे पहले विचार करना होगा कि एक महिला खुद महिला के बारे में, अपने बारे में
क्या सोचती है. यहाँ स्पष्ट है कि आज से नहीं बल्कि सदियों से महिलाओं ने खुद अपने
आपको एक वस्तु, एक उत्पाद बना रखा है, समझ रखा है. यदि ऐसा न होता तो भीड़ में धोखे
से भी किसी पुरुष द्वारा उनकी देह का स्पर्श किसी हंगामे का कारण न बनता. यदि ऐसा
न होता तो आज भी किसी परीक्षा में कोई पुरुष परीक्षक किसी महिला परीक्षार्थी की
नक़ल छुड़ाने में खुद को असमर्थ नहीं समझता. ये बहुत साफ़ सी समझने वाली बात है कि एक
महिला आज खुद को, अपनी देह को किसी मूल्यवान वस्तु से अधिक नहीं समझ रही है. यह भी
सत्य है कि इस समाज में चोर-उचक्के भी हैं जो किसी भी मूल्यवान वस्तु को चुराने के
लिए ही काम कर रहे हैं. यहाँ ध्यान रखना होगा कि महिलाएं आज भी अपने आपको उन
चोर-उचक्कों से बचाने में उसी दशा में समर्थ हैं जबकि उनके साथ कोई पुरुष हो. यहाँ
समझना होगा कि एक पुरुष से बचने के लिए भी एक पुरुष का सहारा चाहिए होता है.
यहाँ आकर स्मरण रखना होगा कि समाज के सभी पुरुष सभी महिलाओं
का शोषण नहीं कर रहे हैं. यहाँ समझना होगा कि एक पिता द्वारा अपनी बेटी की परवरिश
के लिए उस पर अनुशासनात्मक कदम उठाना क्या अत्याचार है? एक अभिभावक यदि अपनी बेटी
की सुरक्षा समाज के अराजक लोगों से कर रहे हैं तो क्या यह उस महिला का शोषण है? समाज
में ऐसी ही कुछ बातों को लेकर लगातार विभेद पैदा किया जा रहा है. एक तरफ अब बेटी
बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे कार्यक्रमों में स्पष्ट सन्देश दिया जा रहा है कि बेटियाँ
अपने माता-पिता की ज्यादा देखभाल कर रही हैं और बेटे इस तरफ ध्यान नहीं दे रहे
हैं. यहाँ इसके सन्दर्भ में ध्यान रखना होगा कि किसी भी माता-पिता की विवाहित बेटी
को यदि उनकी सेवा के लिए सहयोग करने वाला उसका पति, किसी न किसी का बेटा है. यहाँ स्मरण
रखना चाहिए कि यदि किसी की बेटी ससुराल में जाकर पूरी तरह आज़ादी के साथ अपना जीवन
व्यतीत करती है तो फिर वही अधिकार उसी व्यक्ति की बहू को क्यों नहीं मिलते हैं? क्यों
उसी बहू का आज़ाद ख्याल होना उसके परिवार की इज्जत को धूल में मिलाने वाला दिखाई
देने लगता है? यही वे स्थितियाँ हैं जहाँ आकर विभेद की साफ़-साफ़ दीवार दिखाई देने
लगती है.
यदि समाज से बेटियों के प्रति होने वाले दुर्व्यवहार को सदा-सदा
के लिए समाप्त करना है तो अपने दिमाग से हर तरीके के विभेद को हटाना होगा. दिमाग
से निकालना होगा कि स्त्री देह कोई वस्तु है. दिमाग से यह भी निकालना होगा कि किसी
पुरुष की सफलता के पीछे एक स्त्री का हाथ है, यहाँ ध्यान देना होगा कि एक महिला की
सफलता के पीछे भी किसी न किसी पुरुष का हाथ होता है. समाज में एक विभेद को किसी भी
तरह से दूसरे विभेद से दूर नहीं किया जा सकता है.
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