30 जनवरी 2019

एक दिन का आयोजन नहीं है गणतंत्र


गणतंत्र दिवस आते ही हर तरफ देशभक्ति का जूनून दिखाई देने लगा. समाज का एक-एक कोन देशभक्ति से ओतप्रोत समझ आने लगा. सोशल मीडिया पर लोगों की प्रोफाइल और विचार देशभक्ति का गुणगान करने लगे. नागरिक भी अपने घर, कार्यालय, वाहन आदि के साथ-साथ खुद को तिरंगे रँगे से सराबोर करने लगे. गणतंत्र की बातें, संविधान की रक्षा, उसके अनुपालन की बातें लोगों के मुँह से गली, मोहल्ले, चौराहे पर सुनाई दे रही थीं. उस एक दिन के गणतांत्रिक स्वरूप के बाद फिर सब वैसे का वैसा दिखाई देने लगा. सवाल उठे कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में क्या महज एक दिन के लिए ही संवैधानिक महत्त्व है? क्या महज एक दिन ही गणतंत्र की स्वीकार्यता होती है? क्या बस इसी एक दिन के लिए गणतंत्र को, संविधान को आदर दिया जाता है? क्यों इस एक दिन की लोकतान्त्रिक शैली अपनाये जाने के बाद हम नागरिकों के व्यवहार में तानाशाही दिखाई देने लगती है? क्यों इसी एक दिन संविधान को सर्वोच्च मानने के बाद उसमें खामियां दिखाई देने लगती हैं? क्यों एक दिन के गणतंत्र के बाद फिर इसी गणतांत्रिक व्यवस्था को दोयम दर्जे का बताया जाने लगता है? जिन संवैधानिक मूल्यों की लगातार चर्चा होती है, जिन संवैधानिक अधिकारों की बात की जाती है, जिन संवैधानिक दायित्वों पर प्रकाश डाला जाता है वे क्यों यह दिन समाप्त होते ही पुरातन बातें हो जाती हैं?

आज गणतंत्र को अथवा संविधान को समझना इसलिए और भी आवश्यक हो गया है क्योंकि देश के एक-एक व्यक्ति अब राजनैतिक पूर्वाग्रहों से घिर गया है. उसकी अपनी सोच, मानसिकता पर किसी न किसी वाद का, किसी न किसी विचारधारा का कब्ज़ा सा समझ आने लगा है. ऐसा महसूस होता है जैसे सोचने-समझने की क्षमता को कहीं तिलांजलि देकर वह किसी न किसी विचारधारा की कठपुतली बना हुआ है. क्या करना है, क्यों करना है, कैसे करना है के बारे में कोई विचार किये बिना वह स्वार्थपूर्ति में संलिप्त है. अपने मनोनुकूल विचारधारा को पोषित करने में लिप्त है.

यह स्थिति वर्तमान समाज के लिए खतरनाक बनी हुई है. ऐसे में व्यक्ति स्वेच्छा से सोच-विचार करने के बजाय अपनी पुष्ट विचारधारा के अनुसार संचालित होता है. उसी के अनुसार खुद को आगे बढ़ाता हुआ कार्य करता है. इस बिंदु पर आकर वह खुद को और अपनी विचारधारा को ही एकमात्र सत्य स्वीकारता हुआ शेष सभी को ख़ारिज करता जाता है. यह स्थिति जहाँ एक तरफ तानाशाही को जन्म देती है वहीं मानसिक विकृति भी पैदा करती है, जो समाज के लिए किसी भी कीमत पर सुखद नहीं है. ऐसा आज लगातार हो रहा है. खुद को, खुद की विचारधारा को स्थापित करने के लिए व्यक्ति किसी भी हद तक जाने को बेताब सा है. इसी बेताबी, तीव्रता ने व्यक्ति व्यक्ति के मध्य आपस में तनाव को जन्म दिया है. आपसी कटुता, वैमनष्यता को बढ़ावा दिया है. अपराध, हिंसा, दुराचार, अराजकता के मूल में यही वैमनष्यता है, यही विभेद है.

सिर्फ और सिर्फ अपनी स्थापना वाली मानसिकता कैसे गणतंत्र का, संविधान का सम्मान करेगी यह समझ से परे है. इस तरह की सोच दूसरों पर कब्ज़ा करने की भावना का विकास करती है. किसी समय संपत्ति पर कब्ज़ा ज़माने की नीयत अब अधिकारों पर, दिमाग पर, सोच पर कब्जा करने में परिवर्तित होती जा रही है. इस बारे में प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से अध्ययन करते हुए बहुतायत लोगों को उनके विचारों, उनकी मानसिकता के अनुसार ही वातावरण का निर्माण करने की कोशिश की जा रही है. सामाजिकता को किनारे रखते हुए तथ्यों को, आँकड़ों को भी विचारधारा के अनुसार प्रदर्शित करने का कार्य किया जा रहा है. इसके लिए कभी धर्म को, मजहब को साधन के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, कभी जाति को इसका आधार बनाया जाता है तो कभी क्षेत्र की भावना को उछालते हुए वैमनष्यता को बढ़ाया जाता है.

ऐसा करने वाली ताकतें और उन ताकतों के हाथों में खेलते लोग भूल जाते हैं कि ऐसा कोई भी कदम उठाने की अनुमति न तो हमारा संविधान देता है और न ही ऐसा करना गणतांत्रिक दृष्टि से उचित है. इसके बाद भी समूचे समाज में ऐसा होते दिख रहा है. संसद द्वारा किये जा रहे संविधान संशोधनों को भले ही किसी वर्ग, क्षेत्र, राज्य आदि के हितार्थ किया जाता रहा हो मगर समाज में संविधान संशोधनों की अपनी ही परिभाषाएं निकाली जाती हैं. संविधान के अपने ही स्वरूप दिखाए जाते हैं. गणतंत्र को अपने हिसाब से परिभाषित किया जा रहा है.

समझने वाली बात है कि गणतंत्र या फिर आज़ादी महज एक दिन का समारोह नहीं, एक दिन का आयोजन मात्र नहीं. गणतंत्र हमारे देश के, हम नागरिकों के जीने का आधार है. यह महज एक दिन का वो कृत्य नहीं जो तिरंगे के फहराने के साथ शुरू किया जाता है और उसके शाम को ससम्मान उतारने के बाद समाप्त हो जाता है. किसी दिन विशेष के साथ-साथ प्रत्येक दिन सम्पूर्ण देश के लिए गणतंत्र दिवस होना चाहिए, स्वतंत्रता दिवस होना चाहिए. ऐसा न होने का ही परिणाम है कि यहाँ दूसरों के लोकतान्त्रिक मूल्यों का हनन किया जा रहा है. दूसरों की आज़ादी में जबरन दखलंदाजी की जा रही है. गणतंत्र दिवस या फिर स्वतंत्रता दिवस मनाये जाने के पहले, अपने को तिरंगे या फिर भारत माता की जय के द्वारा देशभक्त बताने से पहले संविधान का, गणतंत्र का अर्थ समझना होगा. इनके मूल्यों को समझना होगा. इनके महत्त्व को समझना होगा. यदि ऐसा नहीं किया जा सकता है तो ऐसे किसी भी दिन विशेष का आयोजन खुद के प्रचार-प्रसार का तरीका भर है और कुछ नहीं. 

यदि संवैधानिक मूल्यों का अनुपालन, गणतांत्रिक व्यवस्था का उपयोग, स्वतंत्र जीवन की कार्यशैली को महज एक दिन का मानकर शेष सभी दिनों में उसे तिरोहित कर देंगे तो ऐसा करके हम सभी लोग अपने समाज का, अपने देश का ही अहित करेंगे. हम सबको समझना होगा कि गणतंत्र दिवस का उल्लास, उसके सहारे उमड़ती देशभक्ति का ज्वार महज एक दिन के लिए नहीं बल्कि जीवन-पर्यंत के लिए है.



उक्त आलेख दिनांक 30-01-2019 दैनिक जागरण, राष्ट्रीय संस्करण के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ है.

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