कहीं भी निकल जाइए, किसी भी
जगह नजर दौड़ाइए, हर कोई मोबाइल में तल्लीन दिखाई दे रहा है. बड़े हों या बच्चे,
युवा हों या वृद्ध, स्त्री हो या पुरुष, अधिकारी हो या व्यापारी सभी के सभी मोबाइल
में ऐसे मग्न समझ आते हैं जैसे बिना मोबाइल के उनका एक पल काटना मुश्किल है.
मोबाइल किसके लिए कितना उपयोगी है, कितना नहीं यह उसकी स्थिति और उसके कार्य पर
निर्भर करता है. इधर देखने में आ रहा है कि विद्यालयों, महाविद्यालयों के
विद्यार्थी भी मोबाइल का बुरी तरह से इस्तेमाल कर रहे हैं. इनमें से शायद ही
इक्का-दुक्का होंगे जो अपने पाठ्यक्रम से सम्बंधित जानकारियों को मोबाइल पर खोजते
होंगे. महाविद्यालय में घुसते ही चारों तरफ हरियाली मन प्रसन्न कर देती है और उसी
हरियाली के बीच जगह-जगह लड़के-लड़कियों के छोटे-छोटे झुण्ड सेल्फी लेने में तल्लीन
दिखाई देते हैं. अध्ययन संस्थाओं के अलावा भी बाजार में, टैम्पो में, बस में,
ट्रेन में, रिक्शे आदि में भी लड़के, लड़कियों का मोबाइल से चिपके रहना दिखाई देता
है. अब सफ़र के दौरान या फिर कहीं फुर्सत के समय में युवाओं का किताबों से दोस्ती
करते दिखाई पड़ना लगभग विलुप्त सा हो गया है.
घूमने के शौक के कारण बहुत
सारा समय सफ़र में निकलता है. पहले की तरफ अब कहीं धोखे में एक-दो युवा वर्ग के
लड़के-लड़कियाँ दिखाई देते हैं जो सफ़र के दौरान किसी किताब के साथ हों. रेलवे स्टेशन
पर अक्सर किताब की दुकानों पर किताब लेते समय बातचीत के दौरान उनका भी कहना होता
है कि अब पहले की तरह किताबों की माँग नहीं है. यदा-कदा किताबों को लेने वालों में
भी युवावस्था वाले कम ही होते हैं, न के बराबर. हमें खुद याद नहीं पड़ता कि हमने
आखिरी बार सफ़र में कब किसी युवा यात्री को किताबों में खोये हुए देखा था. इस
आश्चर्य से ज्यादा आश्चर्य की बात यह लगती है कि अध्यापन से जुड़े हुए बहुतेरे लोग
भी किताबों से दूरी बनाये हुए हैं. अपने आसपास के लोगों में, अपनी मित्र-मंडली में
बहुत कम ही मित्र ऐसे मिलते हैं जो पुस्तक पाठन के प्रति आकर्षण बनाये हुए हैं.
आये दिन प्रकाशित होने वाली पुस्तकों के सम्बन्ध में चर्चा करने पर जानकारी मिलती
है कि न तो युवा वर्ग के लोग पुस्तक पढ़ना चाहते हैं और न ही बच्चों को पुस्तकें
पढ़ने के लिए प्रेरित किया जा रहा है.
याद आते हैं बचपन के वे दिन
जबकि घर में चंदा मामा, गुड़िया, नंदन, चम्पक, लोटपोट, सुमन सौरभ आदि पत्रिकाएँ
नियमित रूप से आया करती थीं. उनको पढ़ते-पढ़ते कब युवावस्था के साथ-साथ साहित्यिक
पुस्तकों को पढ़ने की आदत लग गई, पता ही न चला. आज भी व्यस्तताओं के बीच भी नियमित
रूप से पुस्तक पढ़ने का क्रम बना हुआ है. सुखद यह है कि बिटिया रानी को भी पढ़ने का
शौक है. आज यह पोस्ट लिखने का विचार एकाएक इसी कारण से आया कि विगत सप्ताह वाराणसी
यात्रा के दौरान उरई स्टेशन पर बिटिया रानी द्वारा किताब खरीदने की इच्छा व्यक्त
की गई. पिंकी और चाचा चौधरी से सम्बंधित दो पुस्तकों को लेने के बाद तत्परता से
उन्हें पढ़ भी डाला गया. यह शौक इसलिए भी जगा क्योंकि विगत कई सालों से उसको चम्पक,
बच्चों का देश, चाचा चौधरी, पिंकी आदि पुस्तकों को पढ़ने की आदत डाली गई.
मोबाइल के, तकनीक के इस दौर
में आज सबकुछ इंटरनेट पर उपलब्ध है. मोबाइल ने, किंडल संस्करण ने एकसाथ, एक जगह पर
हजारों-हजार पुस्तकों को उपलब्ध करवा दिया है मगर यह सब भी युवा वर्ग में पुस्तक
पाठन के प्रति शौक पैदा नहीं कर पा रहा है. इसका एक बहुत बड़ा कारण बचपन से ही
बच्चों में किताबों को पढ़ने के लिए प्रेरित न कर पाना रहा है. आज बच्चे जिस शौक के
साथ मोबाइल को अपना साथी बना रहे हैं, यदि उन्हें किताबों का महत्त्व समझाएं, उसकी
उपयोगिता के बारे में बताते हुए किताबें पढ़ने को प्रोत्साहित करें तो संभव है कि
वे इस ओर आगे बढ़ें. बच्चों को समझाना होगा कि अपने देश की संस्कृति, सभ्यता,
इतिहास, महापुरुषों आदि के बारे में जानने-समझने के लिए किताबों से अच्छा कोई साथी
नहीं. वास्तव में यदि समझ आ जाये तो पुस्तकों से बेहतर कोई मित्र नहीं. सफ़र हो, घर
को, भीड़ हो, अकेलापन हो या कहीं, कैसी भी स्थिति सभी में किताबें मित्रवत साथ
निभाती हैं.
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