29 दिसंबर 2018

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या आपातकाल


अभी तक फिल्म का ट्रेलर देखने के अलावा कुछ और देखने को नहीं मिला मगर इसके साथ जिस तरह की प्रतिक्रियाएं देखने को मिली हैं उनसे लग रहा है कि कहीं कुछ है जो हलचल मचाएगा. जिस फिल्म की चर्चा की जा रही है वह एक किताब पर आधारित है और वह किताब एक व्यक्ति पर आधारित है. देश के इतिहास में वह कालखंड दर्ज किया जा चुका है और उस कालखंड को सभी ने देखा भी है, उसका एहसास भी किया है. इसे लेकर लोगों में कौतूहल इसलिए भी है क्योंकि सम्बंधित किताब का रचनाकार कोई ऐसा नहीं है जिसने महज ख्याली पुलाव पकाते हुए कल्पना और वास्तविकता का सम्मिश्रण किया है. सभी को पता है कि सम्बंधित किताब का लेखक सम्बंधित व्यक्ति से अत्यंत करीब से एक-दो नहीं वरन चार साल जुड़ा रहा, वो भी मीडिया सलाहकार के रूप में. ऐसे में स्पष्ट है कि अगले ने बहुत करीब से सम्बंधित व्यक्ति को देखा-सुना है. उनके साथ होने वाली पल-पल की घटनाओं का न केवल दर्शन किया है वरन उनका विश्लेषण भी किया है. ऐसे में पुस्तक पर आधारित फिल्म को महज कल्पना या मसाला कहकर ख़ारिज नहीं किया जा सकता है. 


अब जबकि महज ट्रेलर आने के बाद से विवाद सामने आने लगे हैं, ऐसा भी सुनाई दे रहा है कि कुछ राज्यों में इस फिल्म को प्रतिबंधित किया जा रहा है तब बहुत सहजता से पूछा जाना चाहिए कि आखिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या अर्थ है? जो लोग विगत चार वर्षों से देश में अघोषित इमरजेंसी जैसे हालातों की बात करते दिख रहे हैं, वे बताने का कष्ट करें कि इस तरह की हरकतों को क्या कहा जाये? हालाँकि अभी ऐसी खबरों का कोई प्रामाणिक आधार नहीं है क्योंकि फिल्म का रिलीज होना अभी शेष है. इसके बाद भी जिस तरह से सोशल मीडिया में इस फिल्म के ट्रेलर पर लोगों की बौखलाहट दिखाई दे रही है वह साबित करता है कि सच्चाई कहाँ तक है. अभी अंतिम निष्कर्ष निकाल देना गलत होगा, फ़िलहाल तो इंतजार रिलीज का है. उसी के बाद दूध का दूध, पानी का पानी होगा. इसके बाद भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खानदान आधारित दल अपनी नौटंकी अवश्य ही दिखायेगा, इसका पूर्ण विश्वास है.

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