04 दिसंबर 2018

धर्म सभा से उपजी जनभावनाओं के सहारे...


याचना नहीं अब रण होगा, मंदिर वहीं बनायेंगे जैसे जोशीले नारों के बीच संपन्न संतों की धर्म सभा से राम जन्मभूमि मुद्दे पर फिर राजनैतिक करवट के आसार दिखाई दिए. विश्व हिन्दू परिषद्, शिवसेना सहित अन्य हिंदूवादी संगठनों के कार्यकर्ताओं की भारी भीड़ सहित संतों का जमावड़ा अयोध्या मुद्दे पर राजनैतिक दलों में हलचल पैदा कर गया. धर्म सभा के नाम पर हुए इस कार्यक्रम से एक तरफ राम मंदिर निर्माण के प्रति सकारात्मक भाव दिखाई दिया तो दूसरी तरफ इस आयोजन को विशुद्ध राजनीति बताने वालों की भी कमी नहीं थी. यहाँ स्मरण रखना होगा कि सन 2010 में प्रदेश उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने निर्णय देते हुए अयोध्या स्थित विवादित भूमि को राम जन्मभूमि घोषित किया था. न्यायालय की पीठ ने बहुमत से निर्णय दिया था कि विवादित भूमि जिसे राम जन्मभूमि माना जाता रहा है, उसे हिन्दू गुटों को दे दिया जाए और इस स्थल से रामलला की प्रतिमा को हटाया नहीं जाए. चूँकि इस भूमि के कुछ भाग पर मुसलमान नमाज पढ़ने के कारण एक तिहाई हिस्सा मुसलमान गुटों दे दिया जाए. इस निर्णय के पक्ष में हिन्दू-मुस्लिम, दोनों ही नहीं दिखे और निर्णय को अस्वीकार करते हुए दोनों गुट सर्वोच्च न्यायालय चले गए.


सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के ठीक पहले शिया वक्फ बोर्ड के याचिका दायर कर खुद को भी पक्षकार मानने का दावा किया. इस पूरे प्रकरण में भाजपा कहीं नहीं दिखाई देती है. इसके बाद भी सत्य यही है कि अयोध्या मुद्दे का, राम जन्मभूमि विवाद का सर्वाधिक लाभ भाजपा द्वारा उठाया गया. सन 1990 में लालकृष्ण आडवाणी द्वारा की गई कार सेवा को छोड़ दिया जाये तो किसी भी समय भाजपा ने खुलकर अयोध्या मुद्दे पर अपना कदम नहीं उठाया है. भाजपा भली-भांति जानती-समझती है कि 1992 के बाबरी ढाँचे के ध्वंस के बाद और फिर गुजरात में गोधरा काण्ड की प्रतिक्रिया से उपजे दंगों के पश्चात् अधिसंख्यक मुसलमानों ने भाजपा को अपना शत्रु ही समझ लिया है. समाज को हिन्दू, मुस्लिम में बाँटने का आरोप उसके ऊपर लगातार लगाया जाता रहा है. देश भर में कहीं भी संपन्न होने वाले चुनावों के समय उसी को सांप्रदायिक घोषित किया जाने लगता है. इन स्थितियों के बाद भी विगत लोकसभा में बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता प्राप्त कर लेने पर भाजपा स्वयं को बड़े संतुलित रूप में जनमानस में स्थापित करने के विचार में है. ऐसे में राम जन्मभूमि मुद्दे पर उसके द्वारा अत्यंत संयम से काम लिया जा रहा है.

आज़ादी के बाद से ही विवादित रही इस भूमि पर लम्बी चुप्पी के बाद उस समय हलचल आरम्भ हुई जबकि सन 1984 में विश्व हिंदू परिषद ने विवादित ढांचे का ताला खोलने के अभियान के साथ-साथ राम जन्मभूमि को स्वतंत्र कराने और विशाल मंदिर निर्माण हेतु भी अभियान शुरू किया. इसके लिए उसके द्वारा एक समिति का भी गठन किया गया. इस अभियान की तीव्रता को देखते हुए फरवरी 1986 में फैजाबाद के तत्कालीन जिला न्यायाधीश ने विवादित स्थल पर हिन्दुओं को पूजा करने की अनुमति प्रदान की. पूजा करने की अनुमति, ताला खोले जाने की प्रक्रिया से नाराज मुस्लिमों ने बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का गठन किया. इसके बाद सब कुछ शांति से चल रहा था कि सन 1989 इस विषय को आंदोलित करने आ गया. नवंबर में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने विवादित ढांचे के नजदीक शिलान्यास की इजाजत दी. मंदिर के सम्बन्ध में कांग्रेस सरकार का उक्त कदम मुस्लिमों के साथ-साथ हिन्दू वोटों पर भी सेंधमारी करना थी. उस समय यह एहसास भाजपा को नहीं रहा होगा कि राम जन्मभूमि के नाम पर एकाएक यह मुद्दा उसके हाथ लग जायेगा. सन 1992 में राम जन्मभूमि आन्दोलन के दौरान विवादित ढाँचे को गिराए जाने सम्बन्धी कोई नीति भाजपा की तरफ से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सामने नहीं आई थी. दरअसल इस प्रतिक्रिया को जय श्री राम के उद्घोष के साथ जन्मा उत्साह तथा सन 1990 में हुए गोलीबारी में कारसेवकों की मृत्यु से उपजा आक्रोश कहा जा सकता है, जिसे विश्व हिन्दू परिषद् और शिवसेना जैसे संगठनों के नौजवानों ने विवादित ढाँचे को गिराकर समाप्त किया.

सन 1984 के खुले नरसंहार के बाद भी कांग्रेस को उतनी जलालत नहीं झेलनी पड़ी जितनी कि भाजपा आज तक सहती आ रही है. ऐसे में जबकि केंद्र की सत्ता उसके पास है, प्रदेश में प्रचंड बहुमत के साथ उसकी वापसी हुई है, तब वह ऐसा कोई भी कदम नहीं उठाना चाहती है जो उसके सबका साथ, सबका विकास की अवधारणा को कमजोर करे. इसी कारण भाजपा का लगातार प्रयास मुस्लिम मतदाताओं को अपनी तरफ आकर्षित करने का रहा है. उनकी दृष्टि में खुद को उदार, सहयोगी की भूमिका में दिखने का रहा है. धर्म सभा के द्वारा भले ही विश्व हिन्दू परिषद् ने, शिवसेना ने अपनी ताकत का एहसास कराने का प्रयास किया है मगर इस ताकत, इस भीड़ के द्वारा भाजपा निश्चित ही राजनैतिक समीकरण फिट बैठाना चाहेगी. विगत सालों में गैर-भाजपाई दलों ने हिन्दुओं को आकर्षित करने का प्रयास किया है. उनको भी समझ आ रहा है कि एकमात्र मुस्लिम वोटों के द्वारा सत्ता हासिल नहीं की जा सकती है. इसी तरह भाजपा भी इस तथ्य को समझती है कि उसके लिए सत्ता का रास्ता हिन्दू वोटों से ही निकलता है. 

संभव है कि भाजपा का थिंक टैंक इसे समझ रहा हो और वह इसकी भरपाई धार्मिक भावनाओं के द्वारा करना चाहता हो. ऐसे में विश्व हिन्दू परिषद् द्वारा अयोध्या में बुलाई गई धर्म सभा और आगामी माह में संतों की होने वाली धर्म संसद को भाजपा के लिए संजीवनी माना जा सकता है. जनमानस की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए एससी/एसटी एक्ट में संशोधन कर सदन में विधेयक लाने वाली केंद्र सरकार राम मंदिर निर्माण पर भी विधेयक की तैयारी कर सकती है. इसके पीछे भले ही वह अयोध्या में जुटी भीड़ को आधार बनाये क्योंकि इस भीड़ को सिर्फ हिन्दूवादी चेहरा नाम दिया गया. इस भीड़ में कोई जाति, कोई वर्ग अलग से अपना प्रतिनिधित्व करते दिखाई नहीं दे रहा था. विश्व हिन्दू परिषद् अपना काम कर चुकी है, धार्मिक मनोभावना रखने वाली जनता ने अपनी सशक्त और उत्साही उपस्थिति अयोध्या में दिखा दी है अब बाकी बचा हुआ काम केंद्र सरकार के रूप में भाजपा को करना है. लोकसभा चुनावों की आहट सुनाई दे रही है और भाजपा इसके पार्श्व से आती हिन्दू भावनाओं का शोर भी सुन रही होगी. 

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