11 दिसंबर 2018

बढ़ता अकेलापन, बढ़ती आत्महत्या


एक कार्यक्रम में एक विशेषज्ञ युवाओं और किशोरों से सम्बंधित समस्या पर प्रकाश डाल रहे थे. बातचीत के दौरान उन्होंने आत्महत्या के दो बिंदु बताये. उनके द्वारा बताई चंद बातों का सार ये निकलता है कि एक स्थिति  में आत्महत्या करने वाला व्यक्ति इसकी पूरी तैयारी कर चुका होता है, बस वह समय का इंतजार कर रहा होता है. दूसरी स्थिति में आत्महत्या करने वाला ऐसा कदम उठाने का निर्णय एकाएक उठाता है. उसके इस कदम के बारे में उसके आसपास के लोग, उसे साथ के लोग सोच भी नहीं पाते, समझ भी नहीं पाते हैं. यदि उक्त दोनों स्थितियों को सत्य मानते हुए विचार करें कि भले ही आत्महत्या करने वाला व्यक्ति ऐसा कदम सोचविचार कर उठाये अथवा अकस्मात् उठाये दोनों ही स्थितियों में एक इन्सान की मृत्यु हो जाती है. एक व्यक्ति हमेशा के लिए परिवार से चला जाता है. एक व्यक्ति का चले जाना दुःख देता है, मगर तमाम सारे अनुत्तरित से सवाल पैदा कर जाता है.


संभावनाओं के इस दौर में भी समाज में अनिश्चय हावी है, हताशा हावी है, निराशा जारी है, इंसान का मरना जारी है, युवाओं का मरना ज़ारी है. इसमें सबसे बुरा है सपनों का मरते जाना, विश्वास का मिटते जाना. यांत्रिक रूप से गतिबद्ध ज़िन्दगी नितांत अकेलेपन के साथ आगे बढ़ती दिखती है किन्तु आगे बढ़ती सी लगती नहीं. इसके पीछे का कारण समाज में अर्थ को महत्त्वपूर्ण माना जाना भी है. लोगों के लिए एकमात्र उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ धनोपार्जन करना बन गया है. इसके लिए उन्होंने अपने जीवन को मशीन बना लिया गया है. यह यांत्रिक जीवन न केवल धनोपार्जन के लिए वरन बचपन, शिक्षा, घर-परिवार आदि में भी दिखाई देने लगा है. किसी समय मौज-मस्ती, शैतानियों, शरारतों आदि के लिए बचपन को याद किया जाता था किन्तु अब ऐसा लगता है जैसे बचपन की भ्रूण हत्या कर दी गई है. हँसते-खेलते बच्चों की जगह बस्तों का बोझ लादे, थके-हारे से, मुरझाये से बच्चे दिखाई देते हैं. शरारतों, शैतानियों की जगह उनके चेहरों पर बड़ों-बुजुर्गों जैसी भाव-भंगिमा, सोच-विचार दिखाई देता है. नीले आकाश के नीचे उन्मुक्त खेलते, तितली बनकर उड़ते बच्चों को अब कमरों में बंद कर दिया गया है, उड़ान के लिए उनके हाथों में लैपटॉप, मोबाइल थमा दिए गए हैं. किसी समय में दादा-दादी, नाना-नानी के आँचल में छिपकर परियों, वीरों के किस्से-कहानियाँ सुन-सुनकर बड़े होने वाले बच्चे टीवी सीरियल्स के कथित लाइव शो को देखकर बड़े हो रहे हैं, स्मार्टफोन की इंटरनेट दुनिया के कारण समय से पहले ही स्मार्ट हो रहे हैं.

धनोपार्जन की अंधी दौड़ में अभिभावक भी संलिप्त हैं, युवा अनावश्यक सी भागमभाग में जुटे हैं. अनियमित होती जीवनशैली, परिवार से दूर रहने की मजबूरी, अधिकाधिक भौतिक संसाधनों की प्राप्ति करना, चकाचौंध भरी जिंदगी को जीने की लालसा ने इंसान को इंसान की जगह मशीन बना दिया. मशीन बनते इस इंसान ने सबसे पहले अपने भीतर की संवेदना को समाप्त कर उसकी जगह एक बाज़ार को जन्म दे दिया. सब जगह उसने हानि-लाभ का समीकरण लगाया और उसी के अनुसार अपने आपको संबंधों-रिश्तों के साँचे में उतारा. इस यांत्रिक जीवन का दुष्परिणाम यह हुआ कि सारे रिश्ते समाप्त से होते दिखे. बच्चों के लिए माता-पिता और माता-पिता के लिए बच्चे नोट छापने की मशीन मात्र बनकर रह गए. रिश्तों का मोल महज संबोधन के लिए होता दिखने लगा. ऐसी स्थिति में अकेलापन बढ़ना स्वाभाविक ही है और वैसा हुआ भी. धन, भौतिक संसाधन, आधुनिकतम उपकरण, तकनीक की भरमार हो गई और इंसान एकदम अकेला हो गया.

इस अकेलेपन को दूर करने के लिए उसने अपनों का सहारा नहीं लिया; अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए इंसानों का सहयोग नहीं लिया क्योंकि आधुनिकता के बाज़ार में उसे इंसान दिख ही नहीं रहे हैं. चारों तरफ सिर्फ मशीन ही मशीन दिख रही हैं. इससे अकेलापन कम होने की बजे और बढ़ता जा रहा है. इंसान के भीतर एक तरह का खोखलापन बढ़ता जा रहा है. यही सबकुछ व्यक्ति में और अधिक दुःख, हताशा, निराशा का संचार कर देता है. ऐसे में व्यक्ति या तो अवसाद की अवस्था में चला जाता है या फिर आत्महत्या जैसा जघन्य कृत्य कर बैठता है. ज़ाहिर है कि अकेलेपन का इलाज मशीन नहीं, बाज़ार नहीं, तकनीक नहीं वरन अपने लोग हैं, घर-परिवार है. आवश्यकता इस सत्य को समझने की है. यदि ऐसा नहीं होता है तो कारण कुछ भी बताये जाएँ, लोगों में अकेलापन हावी रहेगा, लोगों का मौत के आगोश में चलते चले जाना जारी रहेगा.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें