01 दिसंबर 2018

सम्बन्धों की उन्मुक्तता के साथ मनाएँ एड्स दिवस


समाज वर्तमान में एक प्रकार की विभ्रम स्थिति में खड़ा हुआ है. एक तरफ वह गलत का विरोध करता है तो दूसरी तरफ गलत का साथ देता भी दिखता है. कुछ ऐसा ही खतरनाक बीमारी एड्स को लेकर भी हो रहा है. आज, एक दिसम्बर को समूचे देश में एड्स दिवस मनाया गया, लोगों को एड्स के प्रति सचेत किया गया, शारीरिक संबंधों में विश्वास बनाये रखने की बात समझाई गई. एड्स के प्रति जागरूकता लाने वाले विचार मंच से सुशोभित होकर वहीं ढेर हो जाते हैं. नितांत औपचारिकता में लपेट कर ऐसे कार्यक्रमों की इतिश्री कर ली जाती है और समाज में एड्स को स्वतंत्रता से विचरण करने को छोड़ दिया जाता है. असल में हम खुशफहमी में जीने के आदी हो गये हैं और समस्याओं को देखकर भी, समझकर भी खुशफहमी का शिकार बने रहना चाहते हैं. हमें यह भली-भांति ज्ञात है कि एड्स को समाप्त करने के लिए गोष्ठी-समारोहों-रैलियों आदि से ज्यादा जरूरी है कि हम आत्मविश्वास कायम रखें. वर्तमान में विश्वास की समाप्ति लगभग पूर्णरूप से हो चुकी है, ऐसे में आत्मविश्वास की संकल्पना को पैदा करना मुश्किल ही दिखता है. किसी को यह नहीं समझाया गया है कि अविवाहित युवक-युवतियां सेक्स के प्रति अपनी चाहत को न बढ़ायें. किसी को नहीं समझाया गया है कि पति-पत्नी आपस में प्रेमभाव से रहें और दूसरे जोड़ों की ओर शारीरिक आकर्षण का शिकार न हों. किसी को बिलकुल भी नहीं बताया है कि शारीरिक संवेगों को नियन्त्रित करना प्रमुख होना चाहिए वरन् उन्हें समझाया गया है कि यदि शारीरिक संवेगों की शान्ति करें तो उपयुक्त सुरक्षा उपाय भी अपनायें रखें. हमने युवाओं को उन्मुक्त सेक्स के खतरों को नहीं समझाया है वरन् उन्मुक्त प्रेमालाप के रास्ते सुझाये हैं.


यह सभी को पता है कि एड्स की बीमारी किस कारण से होती है. इसके बाद भी हम संयमित जीवनशैली को व्यतीत करने के पक्ष में नहीं हैं. दूसरे की थाली का चावल अपनी थाली के चावल से ज्यादा स्वादिष्ट होता है की धारणा बनाकर हर स्त्री-पुरुष विवाहेत्तर सम्बन्धों की ओर मुड़ जाता है. इसके अलावा जो युवक-युवती अभी शादी के सामाजिक बंधन में रह कर सेक्स जैसी स्थितियों से नहीं गुजरे होते हैं वे विवाहपूर्व सम्बन्धों को बुरा नहीं मानते हैं. आज के जो हालात हैं उनमें इस तरह की रोकटोक को पुरातनपंथी धारणा, संकुचित मानसिकता का समझा जाता है. अब यदि इस संकुचन से बाहर आना ही है तो उसके साथ कुछ अच्छाइयां और कुछ बुराइयां भी सामने आयेंगीं. इन अच्छाइयों में आपको शारीरिक सुखों की प्राप्ति हो रही है तो बुराई के स्वरूप में एड्स की प्राप्ति तो होनी ही है. एड्स से इतर यदि समाज की वर्तमान स्थिति को दृष्टिगत करें तो एड्स विरोध के साथ ही अनेक विरोधभास सामने आते दिखेंगे. एक ऐसे समाज में जहाँ उन्मुक्त सेक्स को लेकर नए-नए मापदंड स्थापित किये जा रहे हों; ऐसे वातावरण का निर्माण किया जा रहा हो जहाँ विवाहपूर्व अथवा विवाहेतर शारीरिक संबंधों को सहजता से स्वीकार किया जाये; जहाँ गर्भपात करने के सुरक्षित उपाय बाज़ार में भरपूर मात्रा में उपलब्ध हों; असुरक्षित सेक्स के चलते गर्भ रोकने को उपलब्ध गोलियों को महिलाओं की दैहिक स्वतंत्रता समझा जा रहा हो; जबरदस्त यौन-आनन्द, चरमोत्कर्ष पाने के लिए पुरुषों के लिए तेल/क्रीम/दवाई के लुभावने ऑफर सजे दिख रहे हों वहाँ शारीरिक संबंधों में विश्वास को बनाये रखने की बात कपोलकल्पना ही लगती है. किसी समय में परिवार नियोजन के लिए बनाये गए उपकरण निरोध का उपयोग वर्तमान में सुरक्षित यौन-सम्बन्ध बनाये जाने के लिए किया जाने लगा है तो समझा जा सकता है कि समाज में सुरक्षित यौन-सम्बन्ध, विश्वासपरक शारीरिक सम्बन्ध की क्या परिभाषा होगी. इसके अलावा विगत कुछ समय से जिस तरह से सामाजिक संबंधों के निर्वहन में माननीय न्यायालय ने अपनी भूमिका का निर्वहन किया है, उससे भी कहीं न कहीं एड्स उन्मूलन में एक तरह का अवरोध ही आया है.

सामाजिक रूप में जो प्रयास हुए हों वे तो अलग हैं स्वयं सरकार की ओर से भी उन्मुक्त सेक्स की अवधारणा को बल दिया गया है. किसी जमाने में परिवार नियन्त्रण का साधन बना कंडोम आज एड्स नियन्त्रण के रूप में काम में लाया जा रहा है. अब कंडोम के प्रचार में परिवार नियोजन नहीं वरन् एड्स की रोकथाम की बात दिखलाई जाती है. ऐसे में कैसे सोचा जा सकता है कि हम एड्स को रोक पायेंगे. वर्तमान समाज तमाम सारी विसंगतियों, असमानताओं, अनैतिकता को लेकर आगे बढ़ रहा है और तमाम सारे घटनाक्रम को देखने के बाद स्पष्ट रूप से समझ में आता है जैसे अधिसंख्यक लोगों का एकमात्र ध्येय सिर्फ और सिर्फ सेक्स ही रह गया है. इसके अलावा ये बात भी किसी से छिपी नहीं है कि एड्स के जितने भी कारण गिनाये जाते हैं उनमें से असुरक्षित यौन-संबंधों के कारण ही एड्स रोगियों की संख्या में सर्वाधिक बढ़ोत्तरी हो रही है. ऐसे में जब समाज के अधिसंख्यक लोगों का ध्येय सेक्स बना हो; जब सेक्स को लेकर विविध मानक स्थापित किये जा रहे हों; सेक्स की उन्मुक्तता को जीवन की आवश्यकता बताया जा रहा हो; एमटीपी का उपयोग अवांछित गर्भ से मुक्ति पाने के लिए किया जा रहा हो; अधिक से अधिक यौन साथी रखना भी स्टेटस-सिम्बल बनता जा रहा हो तो एड्स दिवस को खुशगवार रूप में मनाये जाने की जरूरत है. यदि एड्स को मिटाना होता, उसका समूल नाश करना होता, एड्स की रोकथाम करनी होती तो सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने वाले विचारों का समर्थन नहीं किया जाता; सामाजिकता का ह्रास करने वालों को सहज-स्वीकार्य नहीं बनाया जाता; पारिवारिक जिम्मेवारी से मुक्ति का नहीं पारिवारिकता का पाठ सिखाया जाता;  संबंधों की, रिश्तों की गरिमा के बारे में बताया जाता. और शायद यही कारण है कि हम आज भी एड्स उन्मूलन दिवस नहीं, एड्स निवारण दिवस नहीं, एड्स रोकथाम दिवस नहीं..... एड्स दिवस ही मनाने में लगे हैं... एड्स बढ़ाने में लगे हैं.  


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें