हालात
किस तरह इन्सान के साथ होने के बाद भी उसके नियंत्रण में नहीं होते हैं. वह चाहता
कुछ और है और होता कुछ है. इसी तरह वह करता कुछ और है और हो कुछ और जाता है. ऐसी
स्थिति में उसकी स्थिति तो जो होना है, वैसी होती है मगर उसके दिल की हालत बड़ी
अजीब हो जाती है. आज भी देखने में आता है कि इन्सान किसी भी स्थिति में अपने
बहुतेरे निर्णय दिमाग की बजाय दिल से लेता है. दिल के निर्णय लेने में हो सकता है
उसे आर्थिक लाभ न हो, हो सकता है कि अन्य सामाजिक लाभ जो उसे मिलने हों वे न मिलें
मगर वह संवेदनात्मक रूप से लाभान्वित रहता है. यही संवेदनात्मक लाभ कई बार उस
व्यक्ति के लिए दुःख का कारक भी होता है. दिमाग की जगह पर दिल से काम करने वाला
इन्सान किसी भी रूप में कुटिल नहीं हो सकता, ऐसा लेखक नहीं कहता वरन तमाम सामाजिक
विज्ञान के शोधों से स्पष्ट हुआ है. ऐसे व्यक्ति को अनेकानेक बार संकटों का सामना
करना पड़ता है. दिमाग से काम करने वाले उसके दिल का दुरुपयोग करके उसका अनुचित लाभ
लेते हैं.
ये
सामाजिक शोध विज्ञानियों को समझना होगा कि आखिर दिमाग की जगह पर दिल से काम करने
वालों को कष्ट की अनुभूति क्यों होती है? शारीरिक संरचना के आधार पर देखा जाये तो
दिल हो या दिमाग, दोनों कि शरीर के अंग मात्र हैं, इसके बाद भी दोनों कार्य संरचना
और अनुभूति में अंतर क्यों? आज भी दिल से काम करने वालों को तरजीह नहीं मिलती वरन
समाज के बहुसंख्यक लोगों की निगाह में उसे नाकारा समझा जाता है. क्या महज इसलिए कि
दिल का सम्बन्ध विशुद्ध प्यार से जोड़ा गया है? क्या इसलिए कि दिल का मामला कहकर
किसी भी इन्सान की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने की छूट सभी को मिल जाती है? क्या
इसलिए कि दिल शब्द आने मात्र से किसी भी स्थिति को महज एक स्त्री एक पुरुष के बीच
की बना दी जाती है? आखिर दिल को दिमाग के मुकाबले इतना हल्का क्यों माना जाता है?
आखिर क्या कारण है कि दिल से लिए गए निर्णयों को सिर्फ हँसी का पात्र बनना पड़ता
है? इस पर विचार करने की आवश्यकता है. सोचने वाली बात महज इतनी है कि दिल है तभी
दिमाग संचालित है, तभी इन्सान संचालित है, तभी अन्य सामाजिक संक्रियाएं संचालित
हैं. यदि दिल न हो सभी जगह सिर्फ और सिर्फ पाशविकता नजर आये. ऐसे में विचार सिर्फ
और सिर्फ इसी का करना है कि हम समाज कैसा चाहते हैं, दिमाग-संचालित या फिर
दिल-संचालित?
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