16 अक्तूबर 2018

गरबा लोकनृत्य की पारम्परिकता

नवरात्रि पर गुजरात की सैर की जाए और गरबा न देखा जाए तो गुजरात भ्रमण अधूरा ही कहा जाएगा. गरबा एक प्रसिद्ध लोकनृत्य है जो गुजरात, राजस्थान और मालवा प्रदेशों में प्रचलित है. इसका मूल गुजरात ही माना जाता है. पावनता से जुड़ा होने के कारण यह लोकनृत्य आधुनिक नृत्यकला में विशिष्ट स्थान रखता है. नवरात्रि के पावन पर्व पर गुजरात भर में जगह-जगह छोटे-बड़े रूपों में गरबा लोकनृत्य करते नर-नारी सहजता से दिख जाते हैं. पूर्ण धार्मिकता के साथ सम्पन्न होने वाले इस आयोजन में आधुनिकता के इस दौर में लोकनृत्य का स्वरूप बना हुआ है.

गरबा शब्द का भी अपना इतिहास है. बहुत से विद्वान इसे हिडिंबा से जोड़कर देखते हैं. कुछ लोग इसे गर्भ द्वीप से सम्बंधित करके देखते हैं. इनका मानना है कि आरंभ में देवी के निकट सछिद्र घट (घड़ा) में दीप ले जाने के क्रम में यह नृत्य होता था. यही घट दीपगर्भ कहलाता था. कालांतर मेन अपभ्रंश और वर्णलोप होने से यहीं से गरबा शब्द का जन्म हुआ. गुजरात में नवरात्रों में लड़कियाँ कच्चे मिट्टी के सछिद्र घड़े को फूलपत्तियों से सजाकर उसके चारों ओर नृत्य करती हैं.

गरबा को सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है और अश्विन मास की नवरात्रों को गरबा नृत्योत्सव के रूप में मनाया जाता है. नवरात्रि आरम्भ होने की पहली रात्रि पूर्ण विधि-विधान से गरबा की स्थापना होती है, फिर उसमें चार ज्योतियाँ प्रज्वलित की जाती है. देवी उपासना के बाद स्त्रियाँ-पुरुष उसी घट के चारों ओर ताली बजाते हुए फेरे लगाते हैं. गरबा नृत्य में ताली, चुटकी, खंजरी, डंडा, मंजीरा आदि का ताल देने के लिए प्रयोग होता है. लोग दो-दो, चार-चार के अथवा बड़े समूह में मिलकर विभिन्न प्रकार से इसको सम्पन्न करते हैं. इस आयोजन में देवी के गीत अथवा कृष्णलीला संबंधी गीत गाए जाते हैं.

आधुनिकता के दौर में इस लोकनृत्य का स्वरूप बचे रहना प्रशंसनीय है.

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