नए-नए विमर्शों और अभियानों के बीच असल मुद्दा कहीं गुम हो जाता है. आजकल जिस तरह से मीटू अभियान सोशल मीडिया पर अपनी उपस्थिति बनाए हुए है, उसे देखकर बहुत से लोगों को बहुत बड़े समाजिक परिवर्तन की आहट सुनाई देने लगी है. पता नहीं, ऐसा कैसे और किस आधार पर कहा जा रहा है क्योंकि जब से इसके बारे में जाना सुना है, तभी से इसके पीछे विशुद्ध आत्मप्रचार ही दिख रहा है. सोचने-समझने की बात है कि जिस तरह से मीटू अभियान के द्वारा कुछ महिलाओं ने अपने साथ हुए यौन उत्पीड़न की घटना को सार्वजनिक किया है वह भले ही उन महिलाओं की हिम्मत बताई जाए पर वास्तविकता में ऐसा नहीं है. इससे न तो यौन उत्पीड़न करने वालों में भय पैदा होगा और न ही किसी तरह का समाजिक बदलाव होगा. यदि ऐसा होना होता तो रेप के लिए बने क़ानून से बलात्कारी डर रहे होते. यदि अपनी पहचान के सार्वजनिक होने का डर इनमें होता तो न ही यौन शोषण की घटनाएँ होती और न ही रेप की. इनमें भी पकड़े जाने पर व्यक्ति की पहचान उजागर हो ही जाती है.
इसी तरह कुछ दिन पहले हैप्पी टू ब्लीड का ज़ोर दिखाई दे रहा था. ख़ुद को ख़ुद की स्थिति से बाहर लाने के लिए महिलाएँ अपने दाग़ को अच्छा बताती हुई उसका प्रदर्शन करने में लगी थीं. ये सच है कि किसी भी महिला के मासिक धर्म को उसके अस्पृश्य होने से जोड़ना नितांत ग़लत है. परिवार में ऐसा किसलिए और क्यों जाता रहा है या क्यों किया जा रहा है, यह उन्हीं महिलाओं को सोचना होगा जो उन दिनों में रसोई, पूजा स्थल में जाने से, अचार आदि छूने से प्रतिबंधित कर देती हैं. मासिक धर्म से जुड़ी परेशानियों को और उससे जुड़ी भ्रांतियों को दूर करने के लिए किसी अभियान का चलाया जाना समझ आता है किंतु हैप्पी टू ब्लीड को विशुद्ध प्रचार और ख़ुद की यौन स्वतंत्रता से जोड़कर महिलाओं ने पेश किया. इसका ख़ामियाज़ा ये उठाना पड़ा इस अभियान को कि समाज में जिस विषय पर जागरूकता लाई जानी सम्भव थी, वो असमय मिट गई. अपने कपड़ों में दाग़ लगाकर घूमना किसी भी तरह का स्त्री-सशक्तिकरण नहीं है. यह बस अपने आपको आधुनिक, बोल्ड दिखाने का तरीक़ा भर रहा.
देखा जाए तो हमारा समाज, चाहे वो क्रांति करने का दम भरने वाले हों या फिर उस कथित क्रांति से लाभान्वित होने वाले, इनके पूर्वाग्रह से भरा है. किसी भी सार्थक विषय को असमय ख़त्म करवा देने, उसके द्वारा बजाय किसी संदेश देने के, बिना कोई जागरूकता लाए बस स्व-प्रचार करने में समस्त ऊर्जा खपा दी जाती है. जैसे पिछले कई सार्थक अभियान बिना किसी सार्थक संदेश के समाप्त हो गए, इस मीटू अभियान के साथ भी यही होता नज़र आने लगा है.
इसी तरह कुछ दिन पहले हैप्पी टू ब्लीड का ज़ोर दिखाई दे रहा था. ख़ुद को ख़ुद की स्थिति से बाहर लाने के लिए महिलाएँ अपने दाग़ को अच्छा बताती हुई उसका प्रदर्शन करने में लगी थीं. ये सच है कि किसी भी महिला के मासिक धर्म को उसके अस्पृश्य होने से जोड़ना नितांत ग़लत है. परिवार में ऐसा किसलिए और क्यों जाता रहा है या क्यों किया जा रहा है, यह उन्हीं महिलाओं को सोचना होगा जो उन दिनों में रसोई, पूजा स्थल में जाने से, अचार आदि छूने से प्रतिबंधित कर देती हैं. मासिक धर्म से जुड़ी परेशानियों को और उससे जुड़ी भ्रांतियों को दूर करने के लिए किसी अभियान का चलाया जाना समझ आता है किंतु हैप्पी टू ब्लीड को विशुद्ध प्रचार और ख़ुद की यौन स्वतंत्रता से जोड़कर महिलाओं ने पेश किया. इसका ख़ामियाज़ा ये उठाना पड़ा इस अभियान को कि समाज में जिस विषय पर जागरूकता लाई जानी सम्भव थी, वो असमय मिट गई. अपने कपड़ों में दाग़ लगाकर घूमना किसी भी तरह का स्त्री-सशक्तिकरण नहीं है. यह बस अपने आपको आधुनिक, बोल्ड दिखाने का तरीक़ा भर रहा.
देखा जाए तो हमारा समाज, चाहे वो क्रांति करने का दम भरने वाले हों या फिर उस कथित क्रांति से लाभान्वित होने वाले, इनके पूर्वाग्रह से भरा है. किसी भी सार्थक विषय को असमय ख़त्म करवा देने, उसके द्वारा बजाय किसी संदेश देने के, बिना कोई जागरूकता लाए बस स्व-प्रचार करने में समस्त ऊर्जा खपा दी जाती है. जैसे पिछले कई सार्थक अभियान बिना किसी सार्थक संदेश के समाप्त हो गए, इस मीटू अभियान के साथ भी यही होता नज़र आने लगा है.
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