पश्चिम
की धरती पर उगे विमर्श, अभियान किसी न किसी तरह भारत भूमि पर भी पल्लवित-पुष्पित
होने लगते हैं. पता नहीं पश्चिम की सोच में, मानसिकता में, वहां की मिट्टी में ऐसा
कौन सा उपजाऊपन छिपा हुआ है कि वहाँ की चीज तो यहाँ पल्लवित होती ही है, अपने देश
की चीजें, विचार आदि भी पश्चिम जाकर पल्लवित होकर वापस लौटी. योग को इसी रूप में
देखा जा सकता है, जो योगा होकर लौटा और घर-घर में जाना जाने लगा. बहरहाल, पश्चिम
की धरती पर उगे तमाम सारे अभियानों के बीच वर्तमान में मीटू अभियान अपना सिर उठाये
फ़िल्मी-राजनीतिक गलियों से विचरण करते हुए सोशल मीडिया में चर्चा का विषय बना हुआ
है. इस अभियान का आरम्भ 2017 में हॉलीवुड के बड़े निर्माता हार्वी वाइनस्टीन पर कई
महिलाओं द्वारा यौन उत्पीड़न और बलात्कार के आरोप लगाए जाने के बाद हुई थी. अमेरिका
में काम करने वाली इतालवी मूल की अभिनेत्री आसिया अर्जेंटो ने उक्त निर्माता पर आरोप
लगा कर इसकी शुरुआत की थी.
देश में
इस अभियान का आरम्भ फ़िल्मी गलियों में तनुश्री दत्ता द्वारा नाना पाटेकर पर लगभग
दस वर्ष पूर्व किसी सेट पर यौन उत्पीड़न के प्रयास किये जाने से हुआ. उसके बाद से
कई महिलाओं द्वारा सोशल मीडिया पर इस अभियान के द्वारा अपने यौन उत्पीड़न की बात
शेयर की गई. यह अभियान विशुद्ध रूप से सोशल मीडिया के अंतर्गत चलने वाला अभियान है
जो अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप प्राप्त किये हुए है. इसके अलावा भारत में फ़िल्मी और
राजनैतिक जगत से जुड़े लोगों के इसमें शामिल होने, अपनी बात कहने को अभी तक देखा
गया है. इस अभियान के द्वारा किसी पुरुष पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने के पीछे की
सत्यता-असत्यता क्या है, ये तो आरोप लगाने वाली महिला ही जाने किन्तु जैसा कि
पूर्व के आन्दोलनों, विमर्शों, अभियानों में होता रहा है कि पश्चिमी धरती पर
सार्थक रूप से फलते-फूलते आये अभियानों का यहाँ स्वरूप विकृत कर दिया गया, ऐसा ही
कुछ इस अभियान के साथ हुआ. इससे पूर्व स्त्री-विमर्श ने अपनी राह से भटक कर इसे
विशुद्ध साहित्यकारों का विषय बना दिया. स्त्री-विमर्श चर्चा में रहा किन्तु
स्त्री सशक्तिकरण सही दिशा में न हुआ. इसी तरह कुछ दिन पहले हैप्पी टू ब्लीड अभियान
के भौंड़ेपन ने उसके भीतर छिपे सन्देश को मटियामेट कर दिया. इसी तरह से मीटू अभियान
के साथ होता दिख रहा है. ऐसा लगने लगा है कि ये आन्दोलन किसी सार्थक दिशा को
प्राप्त करने के बजाय कहानियों का, चटखारा लेने वाले बिन्दुओं का, मसालेदार घटनाओं
का कोलाज बनता जा रहा है.
एक मिनट
को रुक कर सोचा जाये तो देश में आरोप लगाने वाली महिलाओं के सापेक्ष यह सवाल
बार-बार खड़ा हो रहा है कि जब आर्थिक, सामाजिक रूप से सक्षम महिला किसी पुरुष की
बदतमीजी का तत्काल जवाब नहीं दे सकी तो आम महिला की हैसियत ही क्या है कि वह खुलकर
अपनी बात रखे. यदि तनुश्री दत्ता जैसी अभिनेत्री को अपनी बात कहने के लिए दस साल इस
अभियान का इंतजार करना पड़े तो इन आरोपों के पार्श्व में असल कहानी पर भी लोगों की
राय प्रकट होगी. फ़िल्मी जगत और राजनीति का क्षेत्र ऐसा है जहाँ कास्टिंग काउच जैसी
घटनाएँ पूर्व में भी खुलकर सामने आती रही हैं. इन क्षेत्रों में महिलाओं के यौन
उत्पीड़न की, यौन शोषण की खबरें भी समय-समय पर सिर उठाती रही हैं. इन खबरों के पीछे
से स्वार्थपूर्ति की खबरें भी सामने आती रही हैं. खुद के स्थापित करवाने के लिए,
खुद को किसी पद पर स्थापित करवाने के लिए, किसी मुख्य भूमिका के लिए, किसी टिकट के
लिए आये दिन इस तरह की खबरें सामने आती रही हैं. क्या माना जाये ऐसे में, कि उस
समय इन महिलाओं की चुप्पी उनके कैरियर के कारण रही? क्या माना जाये कि
स्वार्थपूर्ति के लिए ये महिलाएं तब अपना यौन उत्पीड़न करवाती रहीं? आज ये महिलाएं
अपनी कहानी को मीटू के रूप में सामने ला रही हैं, क्या ये अपने घरों में,
कार्यालयों में काम करने वाली आम औरत की यौन शोषण की घटनाओं को, उन पुरुषों को इस
अभियान के द्वारा सामने लाने का काम करेंगी? क्या ये ऐसी कमजोर महिलाओं के हितों
के लिए संघर्ष करने का काम करेंगी? क्या ये महिलाएं अपने इसी अभियान के द्वारा यह
बताने की हिम्मत दिखाएंगी कि इन्होंने किसी पुरुष का शोषण नहीं किया है?
यह सत्य
है कि देश में महिलाएं यौन उत्पीड़न का शिकार हैं, यौन शोषित हैं पर जिन महिलाओं की
घटनाएँ मीटू अभियान के साथ बाहर आ रही हैं, क्या वाकई न्याय की अपेक्षा के साथ आ
रही हैं? क्या मान लिया जाये कि समाज में पुरुष यौन उत्पीड़न का शिकार नहीं है?
क्या इस अभियान के साए में सामने आती कहानियाँ वाकई सच्चाई हैं? कहीं ऐसा न हो कि
यह अभियान भी हैप्पी टू ब्लीड की तरह सोशल मीडिया पर कुछ फोटो, वीडियो के साथ ही
एक वर्ग विशेष तक सीमित रह जाये?
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