विगत
दो-तीन दिन से सर्वोच्च न्यायालय ऐतिहासिक निर्णय देने में लगा है. स्त्री-पुरुष के
विवाहेतर संबंधों से जुड़ी भारतीय दंड संहिता की धारा 497 पर
सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा कि व्याभिचार अपराध नहीं
है. विगत माह, अगस्त में देश की शीर्ष अदालत में इस मामले पर
सुनवाई करते हुए कहा था कि व्याभिचार कानून महिलाओं का पक्षधर लगता है लेकिन असल में
यह महिला विरोधी है. अदालत का कहना था कि शादीशुदा संबंध में पति-पत्नी दोनों की एक
बराबर जिम्मेदारी है. फिर अकेली पत्नी पति से ज्यादा क्यों सहे? इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय में कुछ साल पहले एक अर्जी दाखिल कर कहा गया
था कि ये कानून संविधान के अनुच्छेद-14 यानि समानता की भावना
के खिलाफ है. अगर किसी अपराध के लिए मर्द के खिलाफ केस दर्ज हो सकता है, तो फिर महिला के खिलाफ क्यों नहीं? इस अर्जी को अदालत
ने खारिज कर दिया था.
हाल-फिलहाल
व्यभिचार से संबंधित आईपीसी की धारा 497 के बारे में इतना समझिये
कि यह धारा किसी विवाहित महिला से शारीरिक सम्बन्ध बनाये जाने से सम्बंधित है. इसमें
दो पक्ष हैं. एक- यदि महिला से कोई गैर-पुरुष बिना सहमति सम्बन्ध बनाता है तो शिकायत
पश्चात् सम्बन्ध बनाये जाने पुरुष के खिलाफ रेप का केस दर्ज किया जायेगा. दो- यदि विवाहित
महिला अपनी सहमति से किसी गैर-मर्द से सम्बन्ध बनाती है तो उस ऐसी स्थिति में उस पुरुष
पर तब कार्यवाही हो सकती है जबकि महिला का पति शिकायत कर दे. यहाँ इसका कोई अर्थ नहीं
कि महिला की सहमति से सम्बन्ध बने थे. इसमें भी दोषी वह पुरुष रहता है जिसने सम्बन्ध
बनाये. अर्थात कोई ऐसी महिला के साथ, जो किसी अन्य पुरुष की पत्नी
है और जिसके साथ कोई अन्य पुरुष यह विश्वासपूर्वक जानते हुए कि बिना उसके पति की सहमति
या उपेक्षा के वह शारीरिक संबंध बनाता है तो वह बलात्कार की श्रेणी में नहीं आता. शिकायत
होने की स्थिति में वह व्याभिचार के अपराध का दोषी होगा और उसे इसके लिए पाँच वर्ष
की कारावास की सजा या आर्थिक दंड अथवा दोनों से दंडित किया जा सकता है. ऐसे मामले में
महिला दुष्प्रेरक के रूप में दण्डनीय नहीं होगी.
हालाँकि यह अपराध महिला के पति की सहमति द्वारा समझौता करने योग्य है. इस मामले
में पत्नी को अपराध में हिस्सेदार नहीं माना जाएगा. इस धारा को लेकर आधुनिकतावादी,
नारीवादी इसलिए खिलाफ थे क्योंकि उनका मानना था कि सहमति से सम्बन्ध
बनाये जाने के बाद भी महिला के पति द्वारा शिकायत करना दर्शाता है कि वह महिला उस पुरुष
की संपत्ति है.
आज
भी भारत के संविधान का ज्यादातर हिस्सा भारत सरकार अधिनियम 1935 से ज्यों का त्यों नकल करके बनाया गया है. इसलिये ज्यादातर कानून अंग्रेजों
के द्वारा बनाये हुये हैं और आज भी स्वतंत्र भारत में लागू हैं. भारत
की अपराध दंड संहिता यानी आईपीसी लिखने वाले लॉर्ड बैंबिंगटन मैकाले चाहते थे कि विवाह
संबंध में अगर पत्नी और किसी अन्य के बीच शारीरिक सम्बन्ध बन जाने की स्थिति में उसे
अपराध न माना जाए. आईपीसी बनने से पहले देश में नागरिकों के लिए कोई लिखित कानून नहीं
था और परंपरा से न्याय होता था. जब मैकाले के सामने विवाह संबंधी अपराधों को स्पष्ट
करने की स्थिति आई, तो यह प्रश्न भी उठाया गया कि पत्नी के साथ
किसी बाहरी व्यक्ति के यौन संबंध यानि व्याभिचार को अपराध माना जाए या नहीं? मैकाले ने तत्कालीन भारतीय समाज के अपने अनुभवों के आधार पर यह जान लिया था
कि उस समय यदि कोई व्यक्ति किसी दूसरे की पत्नी को भगा ले जाता है अथवा उसके साथ यौन
संबंध बनाता है तो ज्यादातर मामलों में पीड़ित पक्ष यानि पति चाहता था कि उसकी पत्नी
उसे वापस मिल जाए या फिर उसे इसका आर्थिक मुआवजा मिल जाये. मैकाले ने अनुमान लगा लिया
था कि ऐसे प्रकरणों में अपराध जैसी श्रेणी तत्कालीन समाज में स्वीकार्य नहीं थी. परम्पराओं,
संस्कृति, सभ्यता, परिवार
आदि की दुहाई देकर ऐसे प्रकरणों को भावनात्मकता के आधार पर सुलझाने की कोशिश की जाती
थी. इसके बाद भी आईपीसी का निर्धारण होते समय मैकाले का हस्तक्षेप इसमें पूर्ण रूप
से नहीं हो सका क्योंकि उसका विचार व्याभिचार को दीवानी मामला बनाया जाना और आर्थिक
आधार पर इनका फैसला करने का था. मैकाले अपने विचारों को प्रतिपादित करवाने में असफल
रहा और व्याभिचार को आईपीसी में अपराध मान लिया गया और इसके साथ ही भारतीय कानूनों
में धारा 497 जुड़ गई.
सर्वोच्च
नयायालय के फैसले का स्वागत करते हुए राष्ट्रीय महिला आयोग ने कहा कि यह सभी महिलाओं
के हित में होने के साथ-साथ, लैंगिक तटस्थता वाला फैसला भी है.
यहाँ भले ही इस धारा को समाप्त करने सम्बन्धी फैसला आया है मगर इसके परिणामों को भारतीय
समाज के परिदृश्य में देखने की आवश्यकता है. विगत कई वर्षों से लिव-इन-रिलेशन के चलन
में आने के बाद से विवाह संस्था कमजोर होती दिखाई दे रही है. इसके बाद समलैंगिक संबंधों
के हितों की रक्षा की खातिर धारा 377 की समाप्ति ने विवाह संस्था
के साथ-साथ परिवार की नींव को हिलाया है. ऐसे संक्रमणकाल में अदालत के इस फैसले से
स्त्री, पुरुष दोनों ही दो अलग-अलग बिन्दुओं पर प्रभावित दिख
रहे हैं. अब स्त्री (पत्नी) किसी पुरुष (पति) की संपत्ति के तौर पर नहीं दिख रही है.
इसके साथ ही पुरुषों को इस रूप में राहत मिली है कि व्याभिचार कानून के नाम पर अब सिर्फ
उन्हें ही अपराधी नहीं माना जा सकता है. इसके बाद भी कहीं न कहीं ये फैसला समाज में
व्याभिचार को ही बढ़ावा देगा. समाज में आज भी बहुतेरे नारीवादी मंचों से महिलाओं के
शोषण की बात उठती है, उनके पक्ष में आवाज़ उठाई जाती है. एकाधिक
बार ऐसी भी खबरें सामने आईं हैं जहाँ कि पति को अपनी ही पत्नी से वेश्यावृत्ति करवाए
जाने का, देह-व्यापार करवाए जाने का अपराधी माना गया. ऐसे में
इस फैसले से शोषित पत्नी की दशा और ख़राब होने का खतरा नहीं है? आधुनिकता की दौड़ में अंधे होकर दौड़ रहे समाज में इस फैसले का भी स्वागत हुआ
है. इसके परिणाम आने में अभी समय लगेगा. तब तक सब खुद को आधुनिक, समान समझ कर गर्व कर ही सकते हैं.
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