03 अगस्त 2018

सवर्ण राजनीति की मुख्यधारा की माँग नहीं

उच्चतम न्यायालय द्वारा एससी-एसटी एक्ट के सम्बन्ध में दिए गए निर्णय के खिलाफ जाते हुए सरकार संशोधन विधेयक वर्तमान सत्र में ला रही है. इसकी तैयारी के बीच पिछड़ा वर्ग आयोग को भी संवैधानिक दर्जा दे दिया गया है. दलितों-पिछड़ों के लिए उठाये जाते इन कदमों के बीच आरक्षण सम्बन्धी तमाम सारे और भी कदम इस दौरान उठाये जाते रहे हैं. शिक्षा, नौकरी के साथ-साथ पदोन्नति में भी आरक्षण यथावत रखा गया है. केंद्र सरकार के दलितों-पिछड़ों को लेकर किये जा रहे तमाम सारे कार्यों में से शायद ही किसी का इतना विरोध हुआ जो जितना कि एससी-एसटी एक्ट में संशोधन को लेकर हो रहा है. यह स्थिति तब है जबकि इस एक्ट में कोई आमूल-चूल परिवर्तन करने के बजाय उच्चतम न्यायालय द्वारा महज इतनी व्यवस्था की गई थी कि आरोपी सवर्ण की गिरफ़्तारी बिना जाँच के नहीं होगी. इस आदेश को मोदी सरकार की मंशा बताते हुए विपक्षियों ने उपद्रवी माहौल बना डाला. इसका नकारात्मक असर यह हुआ कि केंद्र सरकार संशोधन बिल लाने को तैयार हो गई.


न्यायालय के आदेश के खिलाफ जाकर केंद्र सरकार का इस तरह से संशोधन विधेयक लाने के मूल में विशुद्ध राजनीति है. यह कोई छिपा हुआ एजेंडा नहीं है वरन केंद्र सरकार के कदमों से बराबर सिद्ध होता रहा है कि वह किसी भी रूप में सवर्णों को मददकारी हो या न हो मगर दलितों-पिछड़ों के लिए मददगार अवश्य रहेगी. देश के सवर्णों को सरकार के इस कदम से आपत्ति या निराशा जैसा कुछ नहीं लगना चाहिए क्योंकि सिर्फ यही सरकार नहीं वरन देश की सभी सरकारों का एकमात्र उद्देश्य ऐसे कदमों से दलितों-पिछड़ों का वोट प्राप्त करना है. यदि गंभीरता से देखा जाये तो दलित-पिछड़े किसी भी राजनैतिक दल के लिए आज मुख्यधारा के लोग हैं. सवर्ण अपने आपको किसी भी रूप में मुख्यधारा में न माने, राजनीति के लिए खुद को अहम् न माने. आज न सरकारों को और न ही विपक्ष को सवर्णों की, उनके वोट की आवश्यकता है. यदि सामाजिक प्रस्थिति के रूप में इस बिंदु पर निगाह डाली जाये तो नब्बे के दशक से राजनीति की मुख्यधारा से सवर्णों का पतन किया जाना आरम्भ हो गया था. हिन्दू धर्म की छुआछूत की भावना को, विभेद की भावना को समस्त राजनैतिक दलों द्वारा बुरी तरह से अपने पक्ष में दोहन किया गया. यही कारण है कि जाति का विरोध करने वाले इन राजनैतिक दलों द्वारा जाति-विहीन समाज की बात भले ही की जाती हो मगर समाज से जाति दूर करने की बात नहीं की जाती है. इसी का दुष्परिणाम यह हुआ कि राजनीति में जातिगत आधार पर न केवल राजनैतिक दलों का गठन हुआ वरन वे सत्ता में भी काबिज होने लगे.

यहाँ आकर सवर्णों को समझना होगा कि वे अब राजनीति की मुख्यधारा की माँग नहीं हैं. अर्थशास्त्र का माँग और आपूर्ति का नियम सिर्फ अर्थशास्त्र में ही लागू नहीं होता बल्कि समाज के प्रत्येक हिस्से में लागू होता है. आज देश की राजनीति की माँग दलित हैं, पिछड़े हैं तो सत्ता पक्ष द्वारा, विपक्ष द्वारा, राजनैतिक दलों द्वारा उनकी माँग को स्वीकार किया जा रहा है. सवर्णों को यह समझने की भूल नहीं करनी चाहिए कि वे किसी भी रूप में प्रभावकारी मतदाता हैं. कायदे से देखा जाये तो सवर्ण आज भी निपट कबीलों में बंटा हुआ है. अतीत की छोटी-छोटी रियासतों की तरह वह आज भी छोटे-छोटे से वर्गों में विभक्त है. यही कारण है कि उसके पक्ष में एक आदेश के साथ किसी भी राजनैतिक दल के सवर्ण जनप्रतिनिधि भी आकर नहीं खड़े हुए. देश में वर्तमान में हो रही राजनीति की चाल को समझने की आवश्यकता है. यहाँ सभी राजनैतिक दलों का एकमात्र उद्देश्य सत्ता की प्राप्ति होता है, वह कैसे हो यह उसका विचार-बिंदु होता है. उन्हें न सवर्णों के हितार्थ कोई कदम उठाना है और न ही दलितों-पिछड़ों के हितार्थ. सत्ता की खातिर उन्हें कब कौन सा कदम उठाना पड़ सकता है, ये उन्हें खुद नहीं मालूम होता है.  

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