22 अगस्त 2018

रिश्तों-भावनाओं के लिए भयावह दौर

सोशल मीडिया पर एक फ़ोटो ख़ूब दिखाई दे रही है. इसमें एक पोती अपनी दादी से मिलकर रोने लगती है. दादी-पोती का रोना इसलिए नहीं कि वे मिली, इसलिए भी नहीं कि वे बहुत समय बाद मिली, रोना इसलिए क्योंकि पोती को अपनी दादी एक वृद्धाश्रम में मिली. पोती के लिए ये आश्चर्य से ज़्यादा नफ़रत का क्षण रहा होगा. नफ़रत दादी से नहीं, दादी के उस आश्रम में रहने को लेकर भी नहीं जगी होगी. उस बेटी में नफ़रत ने जन्म लिया होगा अपने माता-पिता के प्रति. वो भी इसलिए क्योंकि उसके माता-पिता ने हर बार ये बताया कि उसकी दादी रिश्तेदारों के घर हैं. वो बेटी किस पीड़ा से गुज़री होगी अपनी दादी को वहाँ देखकर, ये उसके चित्र से समझा जा सकता है.

आख़िर किसे क्या कहा जाए? एक तरफ़ वे बेटा-बहू हैं जो उस वृद्ध को अपने साथ नहीं रख पा रहे. दूसरी तरफ़ एक बेटी है जो अपनी दादी के लिए रो रही है. ऐसे मामलों में क्या सारी ग़लती बेटे की रही? क्या इसमें बहू पूरी तरह से दोषी है? क्या दोनों मिलकर अपनी आज़ादी चाहते थे, जिस कारण ये क़दम उठाया? अपनी ही बेटी से झूठ बोलकर वे क्या साबित करना चाहते थे? क्या अपने कृत्य में उन्हें अपना भविष्य दिख रहा था? असलियत क्या है, वो उस परिवार से मिलकर ही ज्ञात होगा मगर एक सत्य यह है कि आने वाला समय भयावह है, रिश्तों के लिए. आने वाले दौर में भटकाव है भावनाओं के लिए. आने वाला समय अपने आपमें ख़तरनाक है समाज के लिए.

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