विगत कई दिनों से लगातार बादल उमड़ रहे
थे. काले-काले बादल इस तरह आसमान में विचरण करने लगते मानो अब बरसे कि तब बरसे. कई
घंटों की घूमा-फिरी करने के बाद आसमान को अपनी कालिख से मुक्त करते हुए नीला कर
जाते और बारिश का मुँह ताकते लोगों को निराश कर जाते. कभी-कभी छुटपुट कुछ बूँदें
टपक जाती और वे ऐसा एहसास कराती जैसे बादलों के टहलने-घूमने से उनका पसीना निकल कर
धरती पर आ गिरा हो. बादलों का आना और बारिश का न होना लगातार जारी रहा. आसमान के
साए में विचरते बादल अपनी छठा बिखेरते हुए चले जाते और यहाँ धरती पर काली खोपड़ी
वाला अपने-अपने वैज्ञानिक-अवैज्ञानिक तर्क-कुतर्क करता बारिश के होने, न होने का
विश्लेषण प्रस्तुत करता रहता. हमें इन तर्क-वितर्क से कोई लेना-देना नहीं क्योंकि
बचपन से एक बात पढ़ते आ रहे हैं कि बारिश होने के लिए पेड़ों का, छायादार वृक्षों
का, सघन जंगलों का होना अत्यावश्यक है. अब ये सब चीजें बची नहीं सो बारिश भी इसी
अनुपात में हो रही है. बहरहाल, आसमान में जैसे ही काले बादल अपने भ्रमण पर निकलते,
हम भी अपना स्कूटर उठाकर सडकों पर, मैदानों में टहलने लगते. इंतजार रहता कि कब ये
बरसें और कब हम भीगें. हम धरती पर टहलते, बादल आसमां में टहलते और अंततः थकहार कर
दोनों अपने-अपने घर को लौट जाते.
बारिश का होना और हमारा भीगना जैसे पिछले
कई जन्मों का नाता हो. आज से नहीं, बचपन से बारिश में भीगने का जबरदस्त आननद उठाया
है. जब स्कूल में होते तो बारिश के दिनों में इंतजार करते कि कब छुट्टी के समय
पानी गिरे और कब हम भीगते हुए घर पहुँचें. जिस दिन बारिश होने लगती, उसी दिन स्कूल
से घर का रास्ता न जाने कितना लम्बा हो जाता. शहर की न जाने कितनी गलियों में
टहलते-भीगते हम घर पहुँचते. आज भी ऐसा ही होता है. आज भी कॉलेज से आना होता है मगर
अंतर इतना है कि बचपन में छात्र की स्थिति में होते थे आज शिक्षक की स्थिति में
हैं. प्रस्थिति बदलने के बाद भी बारिश के प्रति संवेदनाओं में परिवर्तन न हुआ,
उसके प्रति दीवानगी में कमी न आई, उसके साथ भीगने का आनंद कम न हुआ. यही कारण है
कि आज भी बारिश होने पर बजाय घर में चाय-पकौड़ों का आनंद लेने के हम सड़कों पर टहलते
हुए भीगना पसंद करते हैं. हमारे कई मित्र ऐसी स्थिति में देखकर हमें हमारी उम्र,
हमारे पद, हमारी प्रस्थिति, समाज में हमारी स्थिति का भान करवाते हैं. बारिश में
छोटे से शहर की सड़कों पर भीगते हुए टहलने को बहुत से लोग बचपना बताते नहीं थकते.
कुछ ऐसे कृत्य को बिगड़े युवाओं वाले विशेषण से नवाजते हैं. कोई क्या कहता है, किस
उपाधि से हमें विभूषित करता है इससे हमें फर्क नहीं पड़ता है. हमें आनंद आता है
बारिश में भीगने में तो हम भीगते हैं.
वैसे ये अपने आपमें एक शोध का विषय होना
चाहिए कि उम्र बढ़ने के साथ, पद बढ़ने के साथ, जिम्मेवारी बढ़ने के साथ इन्सान अपना
बचपना क्यों खोता जाता है? क्यों उसे ऐसा लगता है कि यदि वह समाज में खुलकर हँस
लेगा तो लोग उसे जाहिल बता देंगे? क्यों उसके अन्दर ऐसी भावना आ जाती है कि अब वह
शादीशुदा है, बच्चों का पिता है तो उसे बचपन जैसी हरकतें नहीं करनी चाहिए? उसे
क्यों महसूस होता है कि वह किसी पद पर है और दो-चार पल अपनी ख़ुशी के जी लेगा तो
लोग उसके बारे में बुरा सोचने लगेंगे? हमारा अपना अनुभव है कि इन्सान की इसी सोच
ने कि लोग क्या कहेंगे, उसे जरूरत से ज्यादा गंभीर बना दिया है. यही अतिशय गंभीरता
उसे परेशान करती है, थकाती है, हताशा की तरफ ले जाती है. ज़िन्दगी खुलकर, हँसकर
जीने का नाम है. परेशानियों, कष्टों में ज़िन्दगी जी नहीं जाती वरन सिर्फ गुजारी
जाती है. कोई इन्सान किस पद पर है, किस प्रस्थिति में है, कितने बच्चों का पिता है
इसका उसके स्वभाव पर प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए. किसी भी व्यक्ति की अनावश्यक
गंभीरता, जिम्मेवारी उठाये रखने की अनावश्यक भावना ने उसके अन्दर का बचपन समाप्त
करके रख दिया है. यदि हम एहसास करें तो किसी भी व्यक्ति को सबसे ज्यादा आनंद
बच्चों के साथ ही मिलता है. बच्चों के साथ वह उनकी ही तरह तोतली भाषा में बात करने
लगता है, उनके लिए घोड़ा बनकर घूमने लगता है और कभी कोई जानवर बनकर उसी की तरह आवाज़
निकालने लगता है. ये और बात है कि ये सारी हरकतें वह परदे के भीतर करता है.
सोचने वाली बात है कि बारिश में भीगना या
फिर बच्चों की तरह निश्छल जीने का अंदाज प्रदर्शित करना क्या कोई अपराध है? फिर
बारिश में उन्मुक्त होकर आनंद लेना, चंद पल को बच्चों के बीच जाकर बचपन को याद कर
लेने में शर्म क्यों? हम तो आज भी अपनी प्रस्थिति, पद, नाम, काम
को घर पर सुरक्षित रखकर मौका देखकर बच्चों के साथ बचपन गुजार लेते हैं. आज हमारे शहर
में बारिश हुई. लम्बे इंतजार के बाद जमकर हुई. कॉलेज में इसी कारण देर तक रुके रहे
कि शायद वहीं शुरू हो जाये तो लौटते में भीगा जाए मगर मन की ये मुराद पूरी न हो
सकी. घर आते ही बादलों ने बरसना शुरू किया तो हमने भी उनका पीछा किया. बिटिया रानी
संग निकल पड़े अपना स्कूटर लेकर. खूब जीभर कर भीगे. शहर भर का चक्कर लगाते हुए
बारिश का भरपूर आनंद उठाया. आप भी कोशिश करिए, जबरन ओढ़ी हुई गंभीरता से बचने की,
अनावश्यक ओढ़े गए बुद्धिजीवी वाले आवरण से बाहर निकलने की. एक बार बचपन में जाकर
देखिये आनंद तो आएगा, आपकी समस्याओं का हल भी यहीं से मिलेगा.
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