19 जुलाई 2018

प्यार को प्यार ही रहने दो....


दिल्लगी ने दी हवा, थोड़ा सा धुआँ उठा और आग जल गई, तेरी मेरी दोस्ती प्यार में बदल गई, ये गीत किसी समय फिजाओं में खूब गूंजा करता था. पुराने गीतों को दिल की गहराइयों से पसंद करने के बाद भी आज तक ये समझ नहीं आया कि आखिर दोस्ती किस तरह प्यार में बदल सकती है? दोस्ती के अपने गहरे अर्थ हैं और प्यार के अपने. दोस्ती के मायने, उनके सन्दर्भ और कितने भी गहरे क्यों न होते जाएँ, उनमें चाहे जितनी ही आत्मीयता का समावेश क्यों न होता जाये पर वह प्यार में नहीं बदल सकती. आगे बढ़ने से पहले स्पष्ट कर दें कि यहाँ प्यार से सीधा सा तात्पर्य उसी प्यार से है जो उक्त गीत के बोलों में दर्शाने का प्रयास किया गया है. दो विषमलिंगियों का प्रेम ही यहाँ संदर्भित है. यहाँ उसी प्यार की चर्चा है जिसकी कि वर्तमान परिदृश्य में खूब जमकर वकालत की जाती है. कभी अंतरजातीय के नाम पर, कभी अंतरधार्मिक के नाम पर, कभी उम्र के नाम पर, कभी आर्थिक स्तर के नाम पर. बहरहाल, इन विषयों पर चर्चा से इतर आज की चर्चा प्यार और दोस्ती पर.


दोस्ती और प्यार के अपने-अपने गहरे सन्दर्भ में. इन दोनों को आपस में किसी भी रूप में समन्वित नहीं किया जा सकता. ऐसा किया भी नहीं जाना चाहिए. भारतीय सामाजिक सन्दर्भों में वर्तमान परिदृश्य को लिया जाये या फिर पिछली सदी का सन्दर्भ लिया जाये, प्यार को सार्थक सन्दर्भों में न तो स्वीकार किया गया और न ही इसे समझने की कोशिश की गई. अतीत में प्यार के नाम पर, दोस्ती के नाम पर क्या-क्या सन्दर्भ दिए जाते रहे, क्या-क्या परिभाषाएं निर्मित होती रहीं, क्या-क्या व्याख्याएँ की जाती रहीं उनके विस्तार की आवश्यकता इसलिए भी समझ नहीं आती है क्योंकि वर्तमान परिदृश्य सिर्फ और सिर्फ आज की बात करता है. अतीत की किसी भी संकल्पना को आज स्वीकारने जैसी स्थिति बनती नहीं दिखती और भविष्य क्या होगा इसे आज कहा नहीं जा सकता. ऐसा किसी और बिंदु के सन्दर्भ में हो या न हो किन्तु प्यार और दोस्ती के सन्दर्भ में भली-भांति कहा जा सकता है. किसी समय प्यार का सन्दर्भ भले ही एक-दूसरे की भावनाओं को समझने से लगाया जाता रहा हो, भले ही किसी समय में प्यार का अर्थ जन्म-जन्मान्तर का साथ माना-समझा जाता रहा हो, भले ही किसी समय में प्यार को समर्पण, विश्वास का प्रतीक माना जाता रहा हो मगर आज के सन्दर्भों में ऐसा समझना दकियानूसी लगता है. अब प्यार को पूरी तरह से शारीरिकता पर टिका दिया गया है. सात जन्मों का प्यार सात दिनों की मानसिकता पर निर्भर हो गया है. समर्पण, विश्वास से भरा प्रेम गिफ्ट, देह पर आकर रुक गया है.

प्यार के नाम पर शुरू दो विषमलिंगियों की कहानी कब किस मोड़ पर आकर ‘ब्रेकअप’ जैसी स्थिति को प्राप्त कर ले, कहा नहीं जा सकता है. आज एक के साथ चलता प्रेम कब दूसरे की तरफ मुड़ जाए कहा नहीं जा सकता. ऐसा कहना संभवतः ज्यादती होगी कि एक व्यक्ति को एक से अधिक लोगों से प्रेम नहीं हो सकता. यह भी अपने आपमें दार्शनिकता जैसा भाव है कि एक बार में एक से ही प्रेम हो सकता है. यदि ऐसा वाकई है तो इसका अर्थ है कि नैसर्गिक सौन्दर्य-बोध की भावना रखने वाला इन्सान विशुद्ध रूप से मशीनी जीवन व्यतीत कर रहा है. यह शायद बहुत से लोगों के लिए कौतूहल का विषय हो कि एक बार में कई-कई लोगों से प्यार किया जा सकता है. किया भी जाना चाहिए, आखिर प्रेम से प्रेम की ज्योति ही समाज को दिशा देने का कार्य करती है. कई लोगों को इसमें भी व्याभिचार दिखाई देने लगेगा. ऐसा इसलिए क्योंकि समाज में प्यार को लेकर बनी आम धारणा में उन दोनों का आपस में विवाह होना होता है, दो विषमलिंगियों का आपस में प्यार करना अर्थात उनमें शारीरिक संबंधों का बनना निश्चित मान लिया जाता है, विवाह पश्चात् किसी का प्रेम करना वैवाहिक संबंधों में विश्वासघात समझा जाने लगता है. प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो, वाली सोच अब दिखाई नहीं देती है.

दरअसल समाज में प्रेम की अवधारणा को कतिपय फिल्मों ने, कुछ गीतों ने, कुछ व्याभिचारियों ने बदनाम करके रख दिया है. जिनके लिए प्यार का अर्थ विशुद्ध शारीरिकता को प्राप्त करना है वे प्यार नहीं करते वरन प्रेम के नाम पर एक-दूसरे को धोखा देने का काम करते हैं. जिनके लिए प्रेम का तात्पर्य सिर्फ विवाह से लगाया जाता है वे अपने जीवन को संकुचित रूप में देखने के अभ्यस्त हो चुके होते हैं. ऐसे लोग ही प्रेम के नाम पर समाज में उभर चुकी बहुतेरी दुष्प्रवृत्तियों के जिम्मेवार होते हैं. देखा जाये तो प्रेम दो व्यक्तियों के बीच बनी मानसिक स्थिति है जिसका आवरण विशुद्ध मन-दिल के द्वारा निर्मित होता है. प्यार की इस अवधारणा में दो इंसानों के बीच न तो विवाह होता है और न ही देह होती है, न ही शारीरिक सम्बन्ध होते हैं. प्यार की इस मानसिक अवस्था में न उम्र का अवरोध होता है, न जाति का, न आर्थिक स्तर का. आज के भौतिकवादी युग में जहाँ कि सबको तुरत-फुरत परिणाम पाने की चाह है, सफलता के लिए शॉर्टकट पकड़ने की लालसा है वहाँ प्रेम के नाम पर, प्यार के नाम पर मानसिकता को विकसित करना कपोल-कल्पना जैसा है. ऐसा नहीं है कि सभी प्रेम करने वालों के साथ ऐसी ही स्थिति बनी हुई है मगर बहुतायत में यही हो रहा है. यही कारण है कि दो विषमलिंगी इन्सान आपस में विशुद्ध प्यार विकसित करने के, आपस में विशुद्ध प्यार करने के, आपस में समर्पणयुक्त प्रेम करने के दोस्ती का आधार तैयार करते हैं. सामाजिक-पारिवारिक उथल-पुथल को रोकने के लिए प्यार के बजाय दोस्ती का नाम देना ऐसे लोगों को कहीं अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है. ऐसे ही लोग कालांतर में तेरी मेरी दोस्ती प्यार में बदल गई का राग अलापते हुए प्यार की संकल्पना को तो ध्वस्त करते ही हैं, दोस्ती को भी कलंकित करते हैं. आखिर दोस्ती का अपना ही एक अलग रंग है जो किसी भी रूप में प्यार से कमतर नहीं है, कमजोर नहीं है, अनाकर्षक नहीं है. बस महसूस करने की बात है, एहसास की बात है, ज़ज्बात की बात है.

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