प्रतिद्वंद्विता
सदैव से समाज का हिस्सा रही है. दोस्तों में, परिजनों में, भाई-बहिनों में,
आस-पड़ोस में, सहकर्मियों आदि में ऐसा होते हमेशा देखा गया है. कई बार
प्रतिद्वंद्विता सकारात्मक रूप से सामने आती है और कई बार यह नकारात्मक रूप लिए
होती है. सकारात्मक प्रतिद्वंद्विता से सबका ही भला होता है जबकि नकारात्मकता
नुकसान करने के अलावा कुछ नहीं करती है. राजनीति में भी प्रतिद्वंद्विता लगातार
देखने को मिलती रही है. ऐसा उस ज़माने में भी होता था जबकि राजनीतिज्ञों के बीच
आपसी सम्बन्ध मधुर होते थे. बाद में ऐसा उनके बीच भी होते दिखाई दिया जबकि संबंधों
की मधुरता में खटास आनी शुरू हो गई. आज स्थिति यह है कि राजनीति में न तो सम्बन्ध
बचे और न ही मधुरता. अब इसमें आपस में कटुता, खटास, वैमनष्यता देखने को मिल रही
है. समय के साथ-साथ जहाँ बहुत से क्षेत्रों में विकास हुआ है वहीं राजनीति के
क्षेत्र में गिरावट देखने को मिली है. आये दिन खबरें आती हैं जबकि विरोधी दलों के
कार्यकर्ताओं की, नेताओं की हत्या तक करवा दी जाती है. विरोधी दलों के समर्थकों को
प्रताड़ित करना, उनको परेशान करना, उनके साथ अभद्रता करना, कानूनी दाँव-पेंचों के
सहारे उनको जेल भिजवा देना आज आम बात है. ऐसा भी राजनैतिक दलों के उन लोगों द्वारा
किया जाता है जो पार्टी की अग्रिम पंक्ति में शामिल नहीं हैं. ऐसा उनके द्वारा
करने की घटनाएँ मिली हैं जो कहीं, कभी भी किसी संवैधानिक पद पर नहीं रहे हैं.
ऐसे
में यदि खबर मिले कि कोई जिम्मेवार व्यक्ति, ऐसा व्यक्ति को संवैधानिक पद पर बैठे
रहे व्यक्ति के परिवार से जुड़ा हुआ है, वह व्यक्ति स्वयं भी संवैधानिक पद पर आसीन
रहा हो यदि उसके द्वारा कुछ ऐसा किया जाये जो रंजिश या प्रतिद्वंद्विता न सही मगर
कुछ ऐसा ही हो तो क्या कहा जायेगा? कुछ ऐसा ही अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश में
देखने को मिला. उच्चतम न्यायालय द्वारा सरकारी भवनों को खाली किये जाने संबंधी
आदेश दिया गया. जिसमें बहुत से नेताओं को आवंटित किये गए सरकारी बंगलों को खाली
करना था. कुछ नेताओं द्वारा इसके प्रयास किये गए कि उनको भवन खाली न करना पड़े.
हास्यास्पद स्थिति तब लगी जबकि करोड़ों रुपये की संपत्ति के मालिक बताने वाले
नेताओं का देश भर में एक मकान न दिखाई पड़ा. समझ नहीं आया कि अनाप-शनाप संपत्ति अर्जित
करने के बाद भी इनके नाम पर एक मकान न होना कहीं मुफ्त के माल पर आजीवन कब्ज़ा किये
रहने की मानसिकता तो नहीं. बहरहाल, उच्चतम न्यायालय के आदेश का पालन होना ही था,
सो हुआ भी. इसी आदेश के क्रम में उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री द्वारा भी
अपना सरकारी आवास खाली किया गया. उनके आवास खाली करने को मीडिया में ऐसे दिखाया
गया जैसे कि वे अपनी संपत्ति को दान करने कहीं वनवास पर निकले हैं. दो-चार दिनों
की मीडियाबाजी करने के बाद, खुद की गिरती टीआरपी को ऊपर उठाने की दृष्टि से
सामान्य सा जीवन बिताये जाने की कवायद भी दिखी और उसी के साथ मीडिया ने दिखाया
सरकारी आवास का अंदरूनी नजारा.
यह
अपने आपमें हास्यास्पद भी कहा जा सकता है साथ ही क्षोभपरक भी कि एक ऐसा व्यक्ति जो
स्वयं ने कभी मुख्यमंत्री रहा हो, विदेश से उच्च शिक्षा प्राप्त है, युवा है मगर
राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता की नकारात्मकता का शिकार हो गया. मीडिया में उनके आवास
की आई अंदरूनी तस्वीरों ने किसी भी व्यक्ति के या कहें कि विशुद्ध उनके ही
व्यक्तित्त्व के मूल को सामने रख दिया है. जगह-जगह उखड़ा पड़ा भवन, अस्त-व्यस्त पड़े
पौधे, महंगे पत्थर और अन्य सामानों की तोड़-फोड़ देखकर यही लगा मानो ये सब जानबूझ कर
किया गया है. उच्चतम न्यायालय के आदेश को वे राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता में भाजपा
का आदेश, मोदी या योगी का आदेश समझ बैठे. यही कारण रहा कि आवास छोड़ते-छोड़ते
उन्होंने वो नुकसान किया जो उनको कतई शोभा नहीं देता है. आवास के नुकसान की भरपाई
तो हो जाएगी किन्तु जनमानस में उनकी और ज्यादा गिरी छवि की भरपाई कैसे होगी, ये
उनको सोचना चाहिए. किसी मंच पर स्वार्थपरक गठबंधन की क्षणिक विजय के बाद यदि मान
लिया जाये कि एकमात्र यही स्वार्थपरक गठबंधन ही विजयी होगा तब भी सरकारी संपत्ति
किसी न किसी सरकार के अंतर्गत ही आनी होती. ऐसे में सरकारी आवास को किया गया
नुकसान दर्शाता है कि महज आवास छोड़ने की खीझ का ये दुष्परिणाम उस भवन ने, वहां की
वस्तुओं ने, वहां के पौधों ने सहा तो सोचा जा सकता है कि प्रदेश की सत्ता हाथ से
निकलने की खीझ में उन्होंने प्रदेश का कितना नुकसान किया होगा, प्रदेशवासियों को
कितना नुकसान पहुँचाया होगा, यहाँ के विकास की संभावनाओं का कितना न नुकसान किया
होगा.
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