10 जून 2018

रिश्तों का सुख-दुख का रिश्ता


रिश्तों की भी अपनी कहानी है. कोई रिश्तों की खोज कर रहा है, कोई रिश्ते बनाने में लगा है, कोई रिश्ते बचाने में लगा है, कोई रिश्तों के सहारे आगे बढ़ रहा है, कोई रिश्तों को निभाने में लगा है, कोई रिश्तों की याद में खोया है, कोई रिश्तों को बोझ समझ बचने में लगा है. क्या वाकई रिश्ते ऊपर से बनकर आते हैं? क्या वाकई रिश्तों का निर्धारण पूर्व-नियोजित है? बहुत बार रिश्तों के बनने-बिगड़ने के क्रम में महसूस किया है कि किसी के साथ कोई रिश्ता न होने का बाद भी ऐसे तार जुड़ जाते हैं जैसे जन्म-जन्मान्तर का साथ रहा हो. कुछ रिश्तों के साथ ऐसा होता है कि जो जन्म-जन्मान्तर के नाम पर बनाये जाते हैं मगर कुछ समय बाद बोझ लगने लगते हैं. कोई रिश्ता ऐसे बनता है जो अपना न होने के बाद भी अपनेपन से ज्यादा महसूस होता है. कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि रिश्तों की खनक कमजोर पड़ती दिखाई देती है. जितना रिश्तों को करीब से देखा है, महसूस किया है, जितना रिश्तों को बनाया, निभाया है उसे देखते हुए इतना कह सकते हैं कि रिश्ते भले ही कोई ऊपर वाला बनाता हो मगर उसकी देखभाल, उसका सञ्चालन, उसका निर्वहन इंसानों को ही करना होता है. रिश्तों के प्रति गंभीरता, रिश्तों के प्रति लापरवाही के लिए कोई ऊपर वाला नहीं वरन खुद इन्सान और उसके द्वारा बनाई गई परिस्थितियाँ ही जिम्मेवार होती हैं.


व्यक्तिगत रूप से हमारा मानना है कि किसी भी दो व्यक्तियों के बीच का आपसी साहचर्य, उनके बीच का आपसी सह-सम्बन्ध ही उनके मध्य के रिश्ते को आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध होता है. दिल से दिल का, मन से मन का, आत्मा से आत्मा का जैसी शब्दावली से भले ही इस सह-सम्बन्ध को परिभाषित किया जाये मगर सत्यता यही है कि विशुद्ध ईमानदारी से, बिना किसी स्वार्थ के बनाये गए रिश्ते स्वतः ही आपस में तारतम्य स्थापित कर लेते हैं. इसी तारतम्य के चलते कभी-कभी अनजान व्यक्ति भी बहुत अपना सा लगने लगता है. इसी तारतम्यता के चलते एक-दो पल की मुलाकात उस व्यक्ति से ऐसे महसूस होती है मानो कई-कई जन्मों का साथ रहा हो. ऐसे रिश्तों का साथ भी सुखद एहसास कराता है और चंद पल के साथ के बाद बिछड़ना अत्यधिक कष्ट का कारक बनता है. किसी और के साथ ऐसा हुआ हो या न हुआ हो पता नहीं मगर हमने व्यक्तिगत रूप से इस तरह की स्थिति को अपने जीवन में कई-कई बार सहा है, देखा है. सुखद जीवन का संभवतः यही सबसे कठोर पल होता है. इसी मिलने-बिछड़ने की स्थिति के चलते ही खुद को विषम परिस्थितियों से बाहर लाने के लिए, सुख-दुःख की अवस्था से मुक्त रहने के लिए ही ऊपर वाले की इच्छाशक्ति को, उसके निर्णय को आधार बनाया गया होगा.

तमाम सारे अपने ही बनाये तर्क-वितर्क के बीच यह समझना संभव नहीं हो सका है कि यदि रिश्ते ऊपर वाला ही निर्धारित करता है तो वे क्षणिक क्यों होते हैं? यदि रिश्ते दीर्घ हैं तो उनमें माधुर्य की कमी क्यों देखने को मिलती है? क्यों रिश्तों के आपसी सह-संबंधों की डोर चटकने लगती है? क्या ऊपर वाले की शक्ति, निर्णय इतने ही कमजोर हैं जो नीचे वाले इन्सान की इच्छानुसार चलते हैं? क्यों रिश्तों को चिर-स्थायी बनाये जाने जैसा कोई काम उसके द्वारा नहीं किया गया? यह कहीं न कहीं नीचे वाले की ही साजिश है रिश्तों के सञ्चालन, निर्वहन को लेकर. यदि रिश्ता खूबसूरती से चल गया, पूर्ण अपनत्व से निर्वहन हो गया तो इसमें इसी नीचे वाले की काबिलियत और यदि किसी कारण से रिश्ते का आगे बढ़ना संभव नहीं हुआ, किसी कारण से आपसी साहचर्य में कमी आई तो यह ऊपर वाले की मर्जी. कहीं न कहीं संतोष की इस घुट्टी के द्वारा इन्सान अपने जीने की राह को खोजने का प्रयास करता है. अपने रिश्ते के बिखरने पर, किसी अपनेपन के रिश्ते के खो जाने पर होने वाली पीढ़ा से मुक्ति के लिए वह रास्ता तलाश करता है, ऐसे में संतोष का रास्ता उसे सर्वाधिक राहत देने का, संवेदना देने का कार्य करता है.

रिश्तों के बनाये जाने में, रिश्तों के निर्वहन करने में, रिश्तों के बचाए जाने में, रिश्तों के सञ्चालन में, रिश्तों के माधुर्य में, रिश्तों की कड़वाहट में, रिश्तों के बचे रहने में, रिश्तों के खो जाने में सिर्फ और सिर्फ इंसानी स्वभाव का, इंसानी मानसिकता का, इंसानी परिस्थिति का योगदान रहता है. इसे ऊपर वाले की इच्छा बताना, ऊपर वाली किसी शक्ति के हाथों का खिलौना बताना कहीं न कहीं स्वयं को संतुष्टि देने जैसा है. आत्मविश्वास की कमी से जूझ रहे लोगों को, अपनों के बिछड़ने के गम को सह रहे लोगों को, रिश्तों में आई दरार का दर्द सह झेल रहे लोगों के लिए यही संतुष्टि, यही संतोष मरहम का काम करता है. इसके बाद भी कहा जा सकता है कि रिश्ते ही हैं जो इन्सान को इन्सान से जोड़ते हैं, अपनेपन का ककहरा सिखाते हैं, साहचर्य स्थापित करना सिखाते हैं, जीवन-शैली की वास्तविकता से परिचय करवाते हैं.

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