17 जून को महारानी लक्ष्मीबाई का बलिदान के रूप में याद किया जाता है. वे अंग्रेजों
को अपनी झाँसी न देने की जिद में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करती रहीं. इसी संघर्ष
में वे अंग्रेजों के विरुद्ध अपने अंतिम युद्ध में 17 जून 1858 को ग्वालियर में शहीद
हो गईं. 16 जून को अंग्रेज अधिकारी रोज अपनी सेना के साथ बहादुरपुर
से मुरार की तरफ बढ़ा. रोज ने निश्चय किया की वह स्वयं मुरार पर अधिकार करेगा और वहीं
से कोटा की सरायं में विद्यमान स्मिथ को सहयोग करेगा. ग्वालियर में क्रान्तिकारी सैनिक
भी अपने-अपने मोर्चे पर तैनात थे. तात्या टोपे कम्पू में, राव
साहब पश्चिम में, नवाब अलीबहादुर ग्वालियर नगर और किले की
देखरेख में लगाये गए. 16 जून को हुए युद्ध में क्रान्तिकारी सेनाओं
की हार हुई और उनको पीछे हटना पड़ा. मुरार पर रोज का अधिकार हो गया. इसके साथ ही ब्रिगेडियर
जनरल नेपिअर और महाराजा जयाजीराव सिंधिया भी आगरा से मुरार आ गये. अंग्रेजों ने सिंधिया
से एक विज्ञप्ति जारी करवाई जिसमें ग्वालियर के सैनिकों से, जो क्रांतिकारियों की तरफ
से लड़ रहे थे, कहा गया कि अंग्रेजी फ़ौज उनको राजपद देने के लिए युद्ध कर रही है.
अतः वे क्रांतिकारियों का साथ छोड़ दें, उनके लिए आम माफ़ी की घोषणा की जाती है.
इस घोषणा का कुछ न कुछ असर अवश्य हुआ क्योंकि
क्रांतिकारी फौजियों में कुछ लोग फिर से सिंधिया से मिलने की सोचने लगे. रानी लक्ष्मीबाई
ने खुद आगे आकर उनको अंग्रेजों की धूर्तता के बारे में समझाया.
अगली
सुबह, यानि कि 17 जून को रानी झाँसी के लिए सिंधिया की अश्वशाला
से एक नया घोडा लाया गया क्योंकि एक दिन पहले मुरार के युद्ध में रानी का घोडा घायल
हो गया था. रानी ने हाथ में तलवार और कमर में खंजर बांध कर फौजियों की तरह सफ़ेद पैजामा
और लाल कुरता पहना, साथ ही गले में मोतियों की माला डाली. पैरों में नागरा पहन सिर
पर सफ़ेद चंदेरी मुरैठा धारण कर रानी युद्ध के लिए तैयार हो गई. सुबह होते ही स्मिथ
की फ़ौज में युद्ध का बिगुल बज गया. स्मिथ ने एक भाग को रिजर्व में छोड़ा और अन्य के
साथ आगे बढ़ा. उसका दल कुछ कदम आगे बढ़ा ही था कि क्रान्तिकारी सेना की तरफ से गोलों
की बौछार होने लगी. स्मिथ ने पीछे हट कर अपने घुड़सवार दस्ते को आगे बढ़ाया और उसके पीछे
से गोलों की मार शुरू की. घनघोर युद्ध शुरू हो गया. युद्ध होते-होते दोपहर हो गई, कोई
भी पक्ष न जीतता और न ही हारता लग रहा था. अब अंग्रेजों की ओर से कर्नल हिक्स और लेफ्टिनेंट
रेले ने मोर्चा संभाला लेकिन अभी वे थोडा ही आगे बढ़े थे कि रानी के मोर्चे से चले एक
गोले ने रेले और उसके घोड़े के प्राण ले लिए. इस मोर्चे पर रानी की जीत लगभग तय लग रही
थी. तभी कार्नेट गोल्डवर्थी ने वीरतापूर्ण कौशल से अंग्रेजों की हारती बाजी को बचाया.
उसने और कर्नल ब्लेक ने क्रांतिकारियों के मोर्चे में खलबली मचा दी. दो घंटे के भयानक
युद्ध के बाद क्रांतिकारियों की पार्श्व भाग की सेना पीछे हटने लगी. सारी सेना तेजी
से फूलबाग के परेड मैदान की तरफ पीछे हटने लगी.
रानी
लक्ष्मीबाई ने जब यह देखा तो वह अपने सैनिकों को उत्साहित करते हुए प्राणों की बाजी
लगा कर युद्ध करने लगी. दिन के तीन बज चुके थे युद्ध करते-करते रानी अपने साथियों से
बहुत दूर पहुँच गई थी। उनके अंगरक्षक भी उनसे बहुत दूरी पर थे. रानी के साथ केवल मुन्दर
ही थी. इसी समय स्मिथ ने रिजर्व में रोकी हुई अपनी टुकड़ी को युद्ध में उतार दिया. ताजादम
ये सैनिक एकदम से क्रांतिकारियों पर टूट पड़े. अब रानी ने प्राण बचाने के लिए सोनरेखा
नाले को पार करना चाहा. इसी वक्त मुन्दर को एक गोली लगी. रानी ने सुना कि पीछे से मुन्दर
कह रही थी कि अब वह नहीं भाग सकती तो रानी ने पीछे मुड़कर मुन्दर को गोली मारने वाले
का काम तमाम कर दिया. तभी एक सैनिक की तलवार का करारा वार रानी पर पड़ा. उनके माथे से
दाहिनी आँख तक का भाग कट गया. उसी समय एक गोली भी उनकी छाती में जा लगी. वह घोड़े पर
गिर पड़ी. एक सैनिक उनको लेकर पास बनी कुटिया की तरफ भागा. अंग्रेजों ने समझा कि
उन्होंने अंतिम सैनिक को मार दिया है. वे नहीं जानते थे कि घोड़े पर अचेतावस्था में
गिरने वाली कोई और नहीं रानी झाँसी है.
रानी
के शेष साथियों, जो उनको पास बनी कुटिया तक ले गए थे, ने देखा कि रानी की सांसे चल
रही थी. कुटिया के साधू ने रानी के लिए अंतिम प्रार्थना करनी शुरू कर दी. रानी की एक
आँख चोट के कारण बंद थी. उन्होंने बहुत मुश्किल से अपनी दूसरी आँख खोली. उनके मुंह
से रुक-रुक कर अपने बेटे के लिए शब्द निकल रहे थे,...दामोदर...
मैं उसे तुम्हारी... देखरेख में छोड़ती हूँ... उसे छावनी ले जाओ... दौड़ो उसे ले जाओ. ऐसा कहने के साथ उन्होंने अपने गले से मोतियों का हार निकालने की कोशिश की
लेकिन वो ऐसा नहीं कर पाई और फिर बेहोश हो गईं. साधू
ने उनके गले से हार उतार कर उनके एक अंगरक्षक के हाथ में रखते हुए कहा इसे रखो...
दामोदर के लिए. उसी समय रानी की साँसे तेज़ी से चलने लगी. अचानक जैसे उनमें फिर
से जान आ गई. वो बोलीं, अंग्रेज़ों को मेरा शरीर नहीं मिलना
चाहिए. इतना कहकर उनका सिर एक ओर लुड़क गया. उनकी साँसों
में एक झटका आया और फिर सब कुछ शांत हो गया. झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अपने प्राण
त्याग दिए. वहाँ मौजूद रानी के साथियों, साधू और रामचंद्र देशमुख ने रानी के
पार्थिव शरीर पर उसी कुटिया को रखकर आग लगा दी. अंग्रेज जान नहीं सके कि आज के युद्ध
में रानी लक्ष्मी युद्ध भूमि में लड़ते हुए मारी गई हैं.
इस
लड़ाई में लड़ रहे कैप्टन क्लेमेंट वॉकर हेनीज ने बाद में रानी के अंतिम क्षणों का
वर्णन करते हुए लिखा, हमारा विरोध ख़त्म हो चुका था. सिर्फ़
कुछ सैनिकों से घिरी और हथियारों से लैस एक महिला अपने सैनिकों में कुछ जान फूंकने
की कोशिश कर रही थी. बार-बार वो इशारों और तेज़ आवाज़ से हार रहे सैनिकों का मनोबल
बढ़ाने का प्रयास करती थी, लेकिन उसका कुछ ख़ास असर नहीं पड़
रहा था. कुछ ही मिनटों में हमने उस महिला पर भी काबू पा लिया. हमारे एक सैनिक की कटार
का तेज़ वार उसके सिर पर पड़ा और सब कुछ समाप्त हो गया. बाद में पता चला कि वो महिला
और कोई नहीं स्वयं झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई थी.
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इतिहासकार देवेन्द्र सिंह जी की मूल पोस्ट से
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