संयुक्त
राष्ट्र संघ द्वारा तीन जून को विश्व साइकिल दिवस मनाये जाने की आधिकारिक घोषणा की
जा चुकी है. विश्व स्तर पर इसके आयोजन की तैयारियाँ पूरी होकर आज, तीन जून को इसका
आयोजन किया जा रहा है. यातायात के विभिन्न साधनों के बीच साइकिल आज भी अपनी
उपस्थिति पुरजोर तरीके से बनाये हुए है. बहुत से देशों में कार, बाइक के स्थान पर
वहां के नागरिकों द्वारा साइकिल को वरीयता दी जाती है. साइकिल चलाने के अपने फायदे
भी हैं. जहाँ एक तरफ इससे प्रदूषण-मुक्त वातावरण निर्मित होता है वहीं शारीरिक
अभ्यास होने के कारण स्वास्थ्य लाभ भी मिलता है.
ऐसा
माना जाता है कि सन 1817 में जर्मनी के बैरन फ़ॉन ड्रेविस ने साइकिल की रूपरेखा
तैयार की थी. उस समय इस साइकिल को लकड़ी से बनाया गया था तथा इसका नाम ड्रेसियेन
रखा गया था. वह साइकिल 15 किलो मीटर प्रतिघंटा की रफ़्तार से दौड़ लगा लेती थी. लकड़ी
का होने के कारण उसका उपयोग बहुत कम समय तक रहा. उसके बाद सन 1839 में स्कॉटलैंड के
एक लुहार किर्कपैट्रिक मैकमिलन द्वारा साइकिल का आविष्कार किया गया, जिसे
आधुनिक साइकिल का आरम्भिक रूप कहा जा सकता है. मैकमिलन ने पूर्व में चलन में आ रही
पैर से धकेलने वाली साइकिल में कुछ परिवर्तन करके पहिये को पैरों से चला सकने योग्य
बनाया. मैकमिलन ने जिस यंत्र की खोज की उसे उन्होंने वेलोसिपीड का नाम दिया था.
अपने
देश में साइकिल आज़ादी के समय भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, उसके साथ ही उसने आर्थिक
विकास में भी योगदान दिया. सन 1947 में आजादी के बाद साइकिल यातायात का महत्त्वपूर्ण
भाग बनी रही. किसी समय भारत में ज्यादातर परिवारों के पास अनिवार्य रूप से साइकिल
हुआ करती थी. यह व्यक्तिगत यातायात का सबसे ताकतवर और किफायती साधन आज भी बनी हुई
है. आज भी देखने में आ रहा है कि ग्रामीण अंचलों में बाइक आने के बाद भी दूध की बिक्री
के लिए, डाक वितरण के लिए साइकिल का उपयोग किया जा रहा है.
साइकिल
विकास की अनेक कहानियों के बीच साइकिल चलाने वालों की भी बहुत सी कहानियाँ हैं.
हमारी अपनी भी कहानी है, पहली बार साइकिल चलाने को लेकर. किसी भी व्यक्ति के लिए पहली
बार कोई नया काम करना कितना कठिन होगा कह नहीं सकते किन्तु हमारे लिए पहली बार साइकिल
चलाना तो ऐसा था मानो हवाई जहाज चला रहे हों. उस समय कक्षा पाँच में पढ़ा करते थे. साइकिल
चलाने का शौक चढ़ा. घर में उस समय पिताजी के पास साइकिल थी. पिताजी का सुबह कचहरी जाना
होता और दोपहर बाद आना होता था. लगभग उसी समय तह हम भी अपने स्कूल से लौटते थे. कई
बार की हिम्मत भरी कोशिशों के बाद पिताजी से साइकिल चलाने की मंजूरी ले ली. उस समय
तक हमने साइकिल को साफ करने की दृष्टि से या फिर अपने बड़े लोगों के साथ बाजार,
स्कूल आदि जाने के समय ही उसको हाथ लगाया था. अब साइकिल चलानी तो आती
ही नहीं थी तो बस उसे पकड़े-पकड़े खाली लुड़काते ही रहे. दो-चार दिनों के बाद साइकिल पर
इतना नियंत्रण बना पाये कि वह गिरे नहीं या फिर इधर उधर झुके नहीं.
एक
दिन हिम्मत करके साइकिल पर चढ़ने का मन बना लिया. अब क्या था? कई सप्ताह हो गये थे साइकिल को खाली लुड़काते-लुड़काते. बस आव देखा न ताव कोशिश
करके चढ़ गये साइकिल पर. दो-चार पैडल ही मारे होंगे कि साइकिल एक ओर को झुकने लगी. यदि
साइकिल चलानी आती होती तो चला पाते पर नहीं, अब हमारी समझ में नहीं आया कि क्या करें?
न तो हैंडल छोड़ा जा रहा था और न ही पैडल चलाना रोका जा रहा था. साइकिल
थी कि झुकती ही चली जा रही थी और गति भी पकड़ती जा रही थी. गति और बढ़ती, पैडल और चलते, हैंडल और सँभलता उससे पहले ही वही हुआ
जो होना था. हम साइकिल समेत धरती माता की गोद में आ गिरे. तुरन्त खड़े हुए कि कहीं किसी
ने देख न लिया हो. कपड़े झाड़कर चुपचाप घर आकर साइकिल आराम से खड़ी कर दी. शाम को बाजार
जाते समय पिताजी ने उसकी कुछ बिगड़ी हालत देख कर अंदाजा लगा ही लिया कि उसके साथ
क्या हुआ है. साइकिल क्षतिग्रस्त करने के चक्कर में पिटाई तो नहीं हुई क्योंकि पहली
बार ऐसा हुआ था पर साइकिल चलाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया. यद्यपि यह प्रतिबन्ध
बहुत दिनों तक नहीं रहा और कुछ दिन बाद हम साइकिल लुड़काने के बजाय उस पर चढ़कर
चलाने लगे.
अच्छी जानकारी है सर🙏☺️🙏
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