रविवार उतना खामोश
नहीं गुजरता अब, जितना पहले कभी गुजरा करता था. तब स्कूल, कॉलेज की पढ़ाई जैसी
भागदौड़ के बाद रविवार पूरी तरह से खुद का दिन हुआ करता था. एक अघोषित सा कर्फ्यू
लगा रहता था पढ़ाई पर. चाहते, न चाहते हुए भी पूरे रविवार किताबों की तरफ ध्यान
नहीं दिया जाता था. शनिवार शाम से ही योजना बनने लगती थी कि कल क्या-क्या करना है.
उन दिनों हमारे शहर में पार्क, बाग़, बगीचे जैसा कुछ नहीं हुआ करता था, हालाँकि
इसमें परिवर्तन आज भी नहीं हो सका है. आज भी पार्क, बगीचों आदि के मामले में वही
स्थिति है. एक विशेष बात जो उस समय में थी और आज बिलकुल देखने को नहीं मिल रही है
वह थी शहर के तमाम मैदानों में खेलते-कूदते बच्चों की भीड़. तब गिने-चुने कॉलेज हुआ
करते थे, जिनके मैदान बच्चों से भरे रहते थे. रविवार तो जैसे रणक्षेत्र बना रहता
था. कौन पहले आया था, कौन बहुत देर से जमा हुआ है, कौन अभी तक क्यों नहीं गया जैसे
सवालों के बीच शोरगुल मचता और अंततः लड़ाई-झगड़े के बीच सुलह का रास्ता निकल आता. अब
कॉलेज कई हैं, मैदान हैं मगर सब सुनसान. कहीं कोई भीड़ नहीं, कहीं कोई गुट नहीं,
कहीं कोई झगड़ा नहीं, कहीं कोई हंगामा नहीं. अब मैदानों के लिए तो सब दिन एकसमान
हैं. क्या रविवार और क्या सोमवार.
ऐसी स्थिति अकेले
मैदानों के सम्बन्ध में नहीं आई है. इंसानों के साथ भी रविवार कुछ अलग तरह की
स्थितियाँ लेकर आया है. सप्ताह के शेष दिनों में काम का बोझ, काम के निश्चित घंटे,
ऑफिस जाने की भागमभाग के बीच समझ ही नहीं आता कि कब सारे दिन निकल गए. रविवार का
आना जैसे ख़ामोशी का आना होता है. ऐसा लगता है जैसे कोई काम ही नहीं. न किसी से
मिलने जाना है, न किसी का मिलने आना है. न किसी के घर से बुलावा आता है, न किसी को
घर पर बुलाया जाता है. सामाजिक प्राणी होकर भी इन्सान घनघोर रूप से असामाजिक बनता
जा रहा है. अपने आपमें सिमटा हुआ, अपने आपमें ही लिपटा हुआ. आस-पड़ोस की जानकारी
उसे मोबाइल से मिल रही है. सोशल मीडिया के द्वारा मिल रही है. ऐसे में बार-बार
अपने मोबाइल को देखना, बार-बार जाकर लैपटॉप की स्क्रीन ताकना, थोड़ी-थोड़ी देर में टीवी
ऑन करके खुद को अपडेट दिखते रहने की कोशिश करना आदि आज रविवार के मुख्य काम होते
जा रहे हैं.
एक और रविवार गुजरा.
एक और सुनसान दिन गुजरा. एक और खालीपन खुद पर हावी हुआ. इस सुनसान शोर में फिर याद
आया अपना वो सुहाना रविवार जबकि हम सब हल्ला-गुल्ला मचाते हुए मगन रहते थे. बच्चे
होकर भी वाकई में सामाजिक प्राणी से दिखाई देते थे. अब बस इंतजार रहता है कि काश कोई
रविवार आये फिर पुराने रविवार जैसा.
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