दो
दशक से अधिक समय की वैमनष्यता को दरकिनार कर सपा-बसपा ने गलबहियाँ कर ली हैं. जून 1995 के गेस्ट हाउस कांड के बाद प्रदेश की राजनीति में किसी को अंदाजा भी नहीं
होगा कि ये दो दल कभी एकसाथ चुनावी मैदान में उतरेंगे. राजनीति में कोई स्थायी मित्र
नहीं होता और न ही कोई स्थायी शत्रु होता है, इसी सिद्धांत का
पालन करते हुए उत्तर प्रदेश में अचंभित करने वाला गठबंधन देखने को मिला. लोकसभा की
दो सीटों के उपचुनाव और राज्यसभा के लिए इस गठबंधन की कहानी लिखी गई. इससे पहले गत
वर्ष हुए विधानसभा के चुनाव-परिणामों के समय दोनों तरफ से आ रहे बयानों से भी गठबंधन-युक्त
सरकार बनाये जाने के संकेत मिले थे. ये और बात है कि जनता जनार्दन ने भाजपा को प्रचंड
बहुमत देते हुए इन दोनों दलों के गठबंधन करने के किसी भी सपने को चकनाचूर कर दिया था.
राजनैतिक स्वार्थपूर्ति के लिए बने सपा-बसपा के गठबंधन ने लोकसभा उपचुनावों की दोनों
सीटों पर कब्ज़ा कर लिया. गठबंधन की इस जीत को इस कारण भी महत्त्वपूर्ण माना जा रहा
है क्योंकि आगामी वर्ष में लोकसभा चुनाव होने हैं. ऐसे में न केवल सपा-बसपा में ख़ुशी
की लहर दौड़ पड़ी वरन भाजपा-मोदी विरोधियों में भी आशा का संचार हुआ है. इन सभी को एहसास
होने लगा कि यदि सब एकजुट हो जाएँ तो भाजपा को हराना संभव है.
इस
विजय के आधार पर आगामी लोकसभा चुनाव की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है. यहाँ एक बात
विशेष रूप से ध्यान में रखनी होगी कि वर्तमान चुनाव एक उपचुनाव था जिसमें निर्वाचित
जनप्रतिनिधि लगभग एक वर्ष तक ही अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर पायेगा. इसके अलावा
इन दो संसदीय क्षेत्र के मतदाताओं के साथ-साथ सम्पूर्ण प्रदेश के मतदाताओं को भली-भांति
ज्ञात था कि इन दो सीटों की हार-जीत से केंद्र सरकार की स्थिति पर कोई असर नहीं पड़ने
वाला. इसी तरह इन सीटों के परिणामों से प्रदेश की भाजपा सरकार भी अप्रभावित रहनी है.
ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही उठता है कि इन संसदीय क्षेत्रों के मतदाताओं ने क्या वाकई
गठबंधन को विजयी बनाया है?
हाल
फ़िलहाल यदि इन्हीं दो सीटों, गोरखपुर और फूलपुर के मतदान प्रतिशत
का तुलनात्मक अध्ययन किया जाये तो बहुत कुछ स्पष्ट नजर आता है. इन उपचुनावों में जहाँ
मतदान प्रतिशत गोरखपुर में 43 प्रतिशत और फूलपुर में 38 प्रतिशत मतदान हुआ. यह मतदान प्रतिशत लोकसभा चुनाव 2014 में इन्हीं सीटों पर हुए मतदान प्रतिशत से बहुत कम रहा. तब इन्हीं सीटों पर
मतदान प्रतिशत गोरखपुर और फूलपुर में क्रमशः 54 प्रतिशत और 50 प्रतिशत हुआ था. इसके साथ-साथ वर्तमान उपचुनाव में गठबंधन के प्रत्याशी को
गोरखपुर में 456513 मत प्राप्त हुए, फूलपुर
में उनके प्रत्याशी को 342922 मत मिले. गोरखपुर में गठबंधन की
विजय 21881 मतों से हुई जबकि फूलपुर में विजय 59460 मतों से मिली. इन मतों के सापेक्ष यदि 2014 के लोकसभा
चुनाव के मतों को देखें तो गोरखपुर में गठबंधन (यदि सपा और बसपा के मतों को जोड़ दिया
जाये) को 402756 मत (भाजपा 529127 मत) और
फूलपुर में 358966 मत (भाजपा 503564 मत)
मिलते हैं. स्पष्ट तस्वीर सामने है कि मतदान प्रतिशत की कमी के चलते भाजपा को अपने
मतों का नुकसान हुआ है. यदि दोनों चुनावों में गठबंधन को मिले मतों का विश्लेषण किया
जाये तो साफ़ है कि उनके मतों में बहुत ज्यादा बढ़ोत्तरी नहीं हुई है. गठबंधन के मत लोकसभा
2014 के चुनाव में मिले मतों के आसपास ही दिखते हैं. स्पष्ट है कि भाजपा को जो नुकसान हुआ है वह गठबंधन
के चलते नहीं बल्कि कम मतदान के कारण हुआ है. ऐसे में यदि आगामी लोकसभा चुनावों में
मतदान प्रतिशत बढ़ता है तो उसका सीधा लाभ भाजपा को ही मिलेगा न कि गठबंधन को.
इन
दो सीटों के स्थान पर यदि समूचे प्रदेश के मतदान व्यवहार को देखें तो भी गठबंधन फायदे
में नहीं दिखता और भाजपा भी उतने नुकसान में नहीं दिख रहा है जैसा कि लगातार दर्शाया
जा रहा है. भाजपा द्वारा हारी गई सात सीटों को विश्लेषण से बाहर करके यदि शेष सीटों
को विश्लेषण की दृष्टि से देखें तो ज्ञात होता है कि पूरे प्रदेश में लगभग 36 सीटों पर गठबंधन बढ़त बनाये हुए था. इनमें भी एक लाख मतों से अधिक की बढ़त वाली
सीटें मात्र तेरह थीं. क्या वाकई प्रदेश का मतदाता भाजपा सरकार से या मोदी से इतना
नाराज है कि वह गठबंधन को ये सीटें सहजता से जीतने देगा? संभव
है कि जिन आशाओं, अपेक्षाओं के साथ केंद्र में भाजपा को मतदाताओं
ने पहुँचाया है, उसमें शत-प्रतिशत सफलता न मिली हो. इससे मतदाताओं
में नाराजगी होना स्वाभाविक है किन्तु विगत चार वर्षों की साफ़-सुथरी सरकार,
भ्रष्टाचार-मुक्त मंत्रिमंडल, वैश्विक स्तर पर
देश की सशक्त छवि के बनने से आमजन में केंद्र सरकार के प्रति सकारात्मक धारणा भी बनी
हुई है. यही वह विश्वास है जो गठबंधन को मदद करे या न करे किन्तु भाजपा को कमजोर नहीं
होने देगा.
जिस-जिस
को राजनैतिक प्रणाली में, उसकी क्रियाविधि में रुचि होगी उसे
सामान्य रूप में इसका भान होगा ही कि लोकसभा, विधानसभा,
स्थानीय चुनावों का अपना-अपना प्रभाव होता है. लगभग न के बराबर स्थिति
में एक की प्रकृति दूसरे को प्रभावित करती है. ऐसे में ये उपचुनाव भले ही लोकसभा के
लिए हुए हों मगर इनकी अप्रत्यक्ष स्थिति किसी विधानसभा चुनाव से अलग नहीं कही,
समझी जा सकती है. इन दो चुनावों में न तो केन्द्रीय, राष्ट्रीय मुद्दे उठाये गए. इन चुनावों से न तो केन्द्रीय सत्ता को प्रभावित
किया जाना था. ऐसे में देखा जाये तो यह निर्वाचन मुख्यतया सपा-बसपा गठबंधन के लिए प्रयोग
का विषय था. महज दो उपचुनाव सीटों की विजय से ही इसे सफल माना जाना जल्दबाजी ही होगी.
हाँ, आगामी चुनाव लोकसभा के स्थान पर विधानसभा का होता तो गठबंधन
के प्रति सकारात्मक माहौल बनना संभव था. इसके बाद भी एक बात साफ़ है कि राजनीति में
किसी तरह के विश्लेषण अंतिम नहीं होते. उनमें बदलाव समय के साथ होता रहता है. केंद्र
की भाजपा सरकार की नीतियों और कार्यों की समीक्षा की जाये तो मतदाताओं में उतनी नाराजगी
नहीं है जैसा कि प्रसारित किया जाता है. प्रदेश के ही नहीं बल्कि देश के मतदाताओं ने
केंद्र सरकार को नोटबंदी, जीएसटी जैसे बड़े-बड़े मुद्दों पर खुलकर
समर्थन दिया है. ऐसे में गठबंधन की महज दो सीटों पर उपचुनाव वाली विजय को भाजपा की
हार का आधार नहीं बनाया जा सकता है.
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