02 अप्रैल 2018

राजनैतिक स्वार्थपूर्ति के लिए विरोध


देश के बहुत सारे दलित संगठनों ने एससी/एसटी एक्ट पर उच्चतम न्यायालय के फैसले के विरोध में भारत बंद का ऐलान किया था. भारत बंद को कांग्रेस, बसपा सहित कई राजनीतिक पार्टियों का समर्थन भी मिला. इस आन्दोलन में लगे संगठनों और राजनैतिक दलों की मांग थी कि अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 में उच्चतम न्यायालय द्वारा किये संशोधन को वापस लिया जाये और एक्ट को पहले की तरह लागू किया जाए. उच्चतम न्यायालय ने अपने एक फैसले में कुछ दिन पहले कहा था कि अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 के अंतर्गत आरोपी व्यक्ति की गिरफ़्तारी न की जाये बल्कि उसे जमानत दी जाये. आदेश में कहा गया है कि ऐसे किसी मामले में न केवल गिरफ़्तारी को रोका गया है बल्कि एफआईआर लिखने को भी प्रतिबंधित किया गया है. एफआईआर दर्ज करने के पहले डीएसपी द्वारा ऐसे मामले की जाँच की जाएगी. ऐसे मामलों में किसी अधिकारी की गिरफ़्तारी के पहले उसके उच्चाधिकारियों से अनुमति लेनी होगी और किसी सामान्य व्यक्ति के सन्दर्भ में एसएसपी से ऐसी अनुमति चाहिए होगी. इस आदेश के आने के बाद से तमाम दलित संगठनों के अलावा कई राजनैतिक दलों ने इस निर्णय को सरकारी मंशा से ओतप्रोत बताया. उनके द्वारा आरोप लगाया गया कि सरकार द्वारा संविधान से छेड़छाड़ की जा रही है और दलितों के हितों से खिलवाड़ किया जा रहा है. यहाँ समझना होगा कि आखिर उच्चतम न्यायालय का आदेश सरकार का आदेश कैसे हुआ? दूसरी बात कि न्यायालय ने इस अधिनियम को समाप्त तो किया नहीं है वरन ऐसे व्यक्तियों के हितों का संरक्षण किया है जो दुर्भावना के तहत इस अधिनियम में फँसा दिए जाते हैं.


दरअसल अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम 11 सितम्बर 1989 को संसद में पारित किया गया, जो जम्मू-कश्मीर को छोड़कर सम्पूर्ण देश में लागू किया गया. यह अधिनियम उस प्रत्येक व्यक्ति पर लागू होता है जो एससी/एसटी वर्ग से सम्बंधित नहीं है और इस वर्ग के सदस्यों का उत्पीड़न करता है. इस अधिनियम में 5 अध्याय एवं 23 धाराएं हैं. यह पीड़ितों को विशेष सुरक्षा और अधिकार देता है. इस अधिनियम के तहत दर्ज मामलों की सुनवाई के लिए लिए विशेष अदालतों की भी व्यवस्था है. उच्चतम न्यायालय द्वारा दिया गया आदेश वर्ष 2009 को महाराष्ट्र के गवर्नमेंट फार्मेसी कॉलेज में एक दलित कर्मचारी की तरफ से फर्स्ट क्लास के दो अधिकारियों के खिलाफ कानूनी धाराओं के तहत शिकायत दर्ज कराने के बाद उत्पन्न हुआ. इंस्टिट्यूट के प्रभारी डॉ० सुभाष महाजन द्वारा लिखित में कोई निर्देश नहीं देने के बाद दलित कर्मचारी ने सुभाष महाजन की शिकायत कर एफआईआर दर्ज कराई. सुभाष महाजन ने उच्च न्यायालय से अपनी एफआईआर रद्द करने की मांग की किन्तु उच्च न्यायालय ने इस माँग को ठुकरा दिया. बाद में सुभाष महाजन ने उच्चतम न्यायालय में अपील की. जहां उनके खिलाफ दर्ज एफआईआर को हटाने का आदेश दिया गया. इस मामले के बाद सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि ST/SC एक्ट के तहत गिरफ्तारी न की जाए बल्कि अग्रिम जमानत की मंदूरी दी जाए.


किसी निर्णय का विरोध करना लोकतान्त्रिक प्रक्रिया है. ऐसा करना प्रत्येक नागरिक का अधिकार है किन्तु भारत बंद के दौरान जिस तरह से हिंसात्मक तरीके अपनाये गए वह न केवल आपत्तिजनक है बल्कि निंदनीय है. इस बंद के दौरान किये गए उत्पात में न केवल सार्वजनिक, निजी संपत्ति को नुकसान हुआ वरन कई जगह से लोगों के मारे जाने की खबर भी आई है. यहाँ ऐसे संगठनों को सोचना होगा कि वे आखिर चाह क्या रहे हैं? वे खुद भी बहुत अच्छे से समझते हैं कि उनके द्वारा इस कानून का किस तरह दुरुपयोग किया जा रहा है. पूरे देश में दर्ज ऐसे मामलों में 85 प्रतिशत मामले फर्जी पाए जाते हैं. संविधान द्वारा संशोधन करके दलितों के हितों का संरक्षण करने के लिए, उनके साथ भेदभाव को समाप्त करने के लिए बनाया गया अधिनियम एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाने लगा है. आये दिन दलितों द्वारा इस अधिनियम के अंतर्गत फँसा देने की धमकी दिए जाने की खबरें सामने आती रहती हैं. ऐसे में यदि उच्चतम न्यायालय द्वारा कोई आदेश आया था तो उसके लिए लोकतान्त्रिक तरीके से अपना विरोध दर्ज करवाया जा सकता था. ऐसा न करते हुए तमाम सारे दलित संगठनों और राजनैतिक दलों ने इस निर्णय को अपनी राजनीति चमकाने का अवसर माना. उनके द्वारा न्यायालय के इस निर्णय की आड़ में मोदी का, भाजपा का विरोध किया जाना था और उसका परिणाम जान-माल के नुकसान के द्वारा सामने आया.

आज जिस तरह से सवर्णों के देवी-देवताओं के साथ अभद्रता की जा रही है, उनके धार्मिक स्थलों, मानकों के साथ आपत्तिजनक व्यवहार किया जा रहा है, उनको इस अधिनियम के द्वारा जबरन फंसाया जा रहा है उससे साफ़ है कि ये दलित संगठन और इनके नेता किसी भी रूप में आपसी सद्भाव नहीं चाहते हैं. आज दलित वर्ग कानूनी प्रावधान की आड़ लेकर सवर्णों का उत्पीड़न करने का कार्य कर रहा है और इसे उनके पूर्वजों के उत्पीड़न का बदला बताया जा रहा है तो कालचक्र किसी दिन फिर घूमेगा. उत्पीड़न का बदला उत्पीड़न वाला नियम चलता रहेगा, जिसे कभी कानून मदद करेगा तो कभी जन-समुदाय. इस नियम से, इस सोच से संभवतः किसी का भला तो नहीं ही होने वाला, चाहे वाल व्यक्ति हो या संगठन.



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