शाम जितनी तेजी से गहराती जा रही थी, कार भी उसी गति से भागने
में लगी थी. प्रकृति और इन्सान की इस भागमभाग से कहीं अधिक तेज दर्द की लहर सिर से
पैर तक उठकर अन्दर तक हिलाकर रख दे रही थी. आँखों में अनेकानेक कौंधते सपनों के
बीच चंद शंकाएं जन्मती. सपने मचलते, आने वाले समय में बहुत कुछ करने को प्रेरित
करते मगर उसी के बीच सुराख़ खोजकर शंकाओं का जन्म डराता भी. भविष्य के सपने एकाएक
गायब होते दिखते और लगता कि आशंकाएँ विकराल रूप धर कर एक और बुरी खबर का निर्माण
करने में लगी हैं. ऐसा महसूस होता मानो कार के भीतर की चीखती ख़ामोशी आशंकाओं को अपना
रूप धरने का अवसर दे रही है. ख़ामोशी को तोड़ने की कोशिश में सपनों को, आशंकाओं को
दरकिनार करते हुए वर्तमान को सबल बनाया जाने लगता. गहराते अंधकार के साए से बाहर
निकलने की जद्दोजहद में परिवार, जिम्मेवारियाँ, सपने, कर्तव्य आदि-आदि न जाने
क्या-क्या न दिमाग में उथल-पुथल मचाये था. झपकती पलकों, बंद होती आँखों, टूटती
साँसों, ढीली पड़ती नब्ज़, सूखते होंठों, अपलक निहारते बेचैन अपनों के बीच खुद को
बनाये रखने की, बचाए रखने की, विश्वास कमजोर न होने देने की लड़ाई उस पूरी रात चलती
रही.
आहिस्ता-आहिस्ता धड़कन खोते जा रहे दिल के विश्वास ने दोस्ती
को आवाज़ दी और उसके हाथों में अपने आपको सौंपते हुए भी परिवार के भविष्य की चिंता
सता रही थी. अपने अस्तित्व की चिंता व्यक्त की जा रही थी. नव-परिवार की संकल्पना
के आधार को नया आधार देने की बात की जा रही थी. कुछ न होने देने के विश्वास के बीच
हांफती साँसें डरा जाती मगर विश्वास की डोर एक-दूसरे को थामे रही और साँसों को
भटकने नहीं दिया गया. अंधकार-रौशनी, आसमान-धरती, चाँद-तारे, तेज शोर-सन्नाटा, शीतल
एहसास-जलती आग की गरमी, हथेलियों की मजबूत पकड़-रेत की तरह सबका छूटते जाना न जाने
क्या-क्या अनुभव गुजरते जा रहे थे. औजारों के शोर डराते मगर अपनी ही चीखों के बीच खुद
को संभालने के बीच आँखें अपने विश्वास को तलाशती. परिजनों की अपनी चिंताओं के बीच,
दोस्तों के अपनत्व के बीच हम सब एक-दूसरे को दिलासा देने की कोशिश करते दिखते.
आँखों में छलकते आँसुओं को अपनी पलकों में छिपा होंठों पर मुस्कान लिए मिलते. वे
अपने दुःख का एहसास छिपाना चाहते हम अपने दर्द को पीने में लगे रहते.
एक दशक से अधिक का समय गुजरता हुआ लगभग रोज ही उसी जगह खड़ा कर
देता है जहाँ से दर्द की लहर उठना शुरू हुई थी. एक-एक पल दर्द की सीमाओं को तोड़ता
हुआ आज भी नस-नस में समा जाता है. देह के इस दर्द के अलावा भी बहुतेरे दर्द मिले, अपनेपन
के सुखद एहसास के बीच बहुतेरे सुख भी मिले. अपनों के भी, गैरों के भी. लगता है
बहुत बार कि सामने आना चाहिए सबकुछ. क्यों और किसके लिए सब कुछ अपने अन्दर ज़ज्ब किये
रहा जाये? बहुत कुछ होता है जो कह कर भी नहीं कहा जा सकता है. बहुत कुछ होता है जो
अनकही रूप में कह लिया जाता है. इस कही-अनकही के बीच की कड़ी बनानी है जो अपनों से
भी जोड़ेगी, जो गैरों से भी जोड़ेगी. है बहुत कुछ उस दर्द के सिवाय भी जो सिर्फ सहा ही
गया. है बहुत कुछ भी उस रात के सिवाय जो सुबह में बदला नहीं गया. है बहुत कुछ बताने
को जो कहकर भी कभी कहा नहीं गया. दर्द की, दिलासा की, अपनेपन की, विश्वास की,
दोस्ती की, ममता की, भाईचारे की, बंधुत्व की, सामाजिकता की, आलोचना की न जाने
कितनी-कितनी कतरनें हैं जो सुरक्षित हैं उसी दिल में जो उस रात न धड़कते हुए भी धड़क
रहा था, आज भी धड़क रहा है.
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