कल पुस्तक दिवस मनाया गया. जिनको पुस्तकों से प्रेम है
उन्होंने तो जोश के साथ मनाया और जिनको पुस्तकों के प्रति प्रेम दर्शाना था
उन्होंने सेल्फी के साथ मनाया. किताबों के प्रति हमारे लगाव का एक बहुत बड़ा कारण
आनुवांशिक कहा जा सकता है. पिताजी को और बाबाजी को जबरदस्त शौक था पढ़ने का. बाबाजी
को हमने पूरे दिन कुछ न कुछ पढ़ते बराबर देखा है. समाचार-पत्र को वे इस तरह पढ़ते कि
कोई एक समाचार भी उनसे बचकर नहीं निकल पाता. इसी तरह पिताजी को हमने एक दिन में
उपन्यास समाप्त करते देखा है. उरई में हमारे परिचित की एक दुकान हुआ करती थी.
मंगलवार साप्ताहिक बंदी के चलते दुकान बंद रहती. पिताजी को उस एक दिन में किताब
समाप्त करते देखा है. इसके अलावा तमाम सारी पत्रिकाएँ हमारे घर में आती. हम बच्चों
के लिए भी अनेक पत्रिकाएँ पिताजी लाया करते थे. चंपक, लोटपोट, चंदामामा, गुड़िया, नंदन,
सुमन सौरभ, चाचा चौधरी, बिल्लू, पिंकी आदि से परिचय बराबर होता रहता था. आगे चलकर
राजन-इक़बाल सीरीज ने खूब आकर्षित किया. न जाने कितनी कॉमिक्स हम दोस्तों के बीच
इधर से उधर होती रहतीं. पढ़ने के इस शौक में उस समय चार चाँद लग गए जबकि कक्षा छह
में एडमीशन लेने पर जीआईसी कैम्पस में राजकीय पुस्तकालय के दर्शन हो गए. आज भी
राजकीय पुस्तकालय नियमित रूप से जाना होता है. आज भी पुस्तकों के साथ दोस्ती बहुत
गहरी है. सफ़र में आज भी कई-कई किताबें हमारी सहयात्री बनती हैं.
पढ़ने के अपने शौक के बीच याद नहीं कि कब बचपन में लिखने का भी
शौक लग गया था, जो आज तक बना हुआ है. उस समय हमारी उम्र शायद नौ-दस वर्ष की
रही होगी जबकि हमने अपनी पहली कविता लिखी थी. पिताजी की तरफ से हमेशा ऐसे कामों के
लिए प्रोत्साहन मिलता रहा. उन्होंने उस कविता को उस समय दैनिक भास्कर,
स्वतंत्र भारत और आज में प्रकाशित करवाया था. बहरहाल, समय
के साथ पढ़ना-लिखना दोनों बढ़ता ही रहा. किताबों की संख्या अलमारी में बराबर बढ़ती
रही. लिखने वाली सामग्री भी बढ़ती रही. इस लिखने के शौक का जब छपास रोग से संपर्क हुआ
तो लिखना और तेज हो गया. अब चूँकि छपने के लिए भी लिखना था सो पढ़ना और भी ज्यादा
जरूरी हो गया, सो पढ़ना उससे भी अधिक तेज हो गया. कालांतर में तकनीकी विकास ने लेखन
को ब्लॉग, वेबसाइट ने विकास के आयाम दिए. बहुत कुछ लिख-पढ़ लेने के बाद कुछ अपने
बारे में लिखने-बताने की इच्छा हुई तो आत्मकथा कुछ सच्ची, कुछ झूठी
का लेखन शुरू किया. अपने चालीस वर्ष के जीवन को जैसे देखा-समझा, इतने वर्षों में
बहुत से खट्टे-मीठे अनुभव हुए, बहुत से अपने-पराये साथ आये उन सभी अनुभवों को
इकठ्ठा करने का काम किया.
आत्मकथा लेखन पूर्ण हुआ और उसके प्रकाशन की प्रक्रिया आरम्भ
करनी है, बस किसी प्रकाशक की सहमति के इंतजार में हैं. इस बीच कुछ अन्य विषयों पर
पुस्तक लिखने का विचार बन रहा था. जिसमें से एक पुस्तक काव्य-रूप में है. इसमें एक
शहर को जिंदगी से, व्यक्तियों से, किसी स्थान से, किसी सजीव-निर्जीव से,
समय-काल-परिस्थिति आदि से सम्बंधित करके दिखाया गया है कि वह शहर रात में किस तरह
की अनुभूति करता है. आत्मकथा लेखन के पश्चात् इसी पुस्तक रात का शहर
को लिखने का विचार था. कल पुस्तक दिवस के अवसर इसे आरम्भ किया है. दस-बारह
पंक्तियों की काव्य-रचना के द्वारा इसी अनुभूति को रात के शहर के सम्बन्ध में
दर्शाने का प्रयास किया गया है. अभी बने खाँचे के अनुसार विचार ये किया है कि महज इक्यावन
काव्य-रचनाओं का संकलन किया जायेगा.
एक काव्य-रचना को उदाहरण स्वरूप देखिएगा-
यादों में बस गया था वो रात का
शहर,
इक अफसाना बन गया वो रात का शहर.
सूनी गली के घर से झांकती आँखें,
फैक्ट्री से लौटते पिता को ताकती
राहें.
झींगुरों के गीतों से सन्नाटों
का बिखरना,
पहरेदारों की तरह था कुत्तों का
विचरना.
खांसना-खखारना किसी बुजुर्ग
पड़ोसी का,
गूंजता स्वर ले लो मूंगफली,
लईया, पट्टी का.
झिर-झिर कर आती रौशनी हलकी सी,
अंधकार को जीतने की कोशिश ज़ारी
थी,
खम्बे के उस बल्ब को किसी की नजर
लग गई,
घुप्प अन्धकार में घिर गया वो
रात का शहर.
all the very best bhaiya!!
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