21 अप्रैल 2018

संवेदनशीलता के साथ हो कठुआ काण्ड की जाँच


अभी तक किसी भी घटना पर मीडिया ट्रायल देखते आ रहे थे, अब सोशल मीडिया भी इसी भूमिका में आ गया है. पिछले दिनों कठुआ कांड को जिस तरह से मजहबी रंग देकर उछाला गया उसे लेकर मीडिया की अपनी भूमिका रही. उसकी भूमिका से इतर सोशल मीडिया पर लोगों के अपने-अपने विचार सामने आने लगे. फोटो, वीडियो खुलकर पीड़ित बच्ची का नाम, पता बताने में लग गए. इन्हीं फोटो, वीडियो के बीच ऐसी भी पोस्ट सामने आईं जो उस कांड की सत्यता उजागर करने की ओर बढ़ती दिख रही थीं. लोगों की न्यायविद बनने, पत्रकार बनने, नेता बनने, जज बनने, जासूस बनने की भूमिकाओं के बीच हिन्दू धर्म को कटघरे में खड़ा कर दिया गया. मंदिरों को अपराध-स्थल और हिंदुत्व को बलात्कारी धर्म जैसा साबित किया जाने लगा. कार्टून बनाये जाने लगे, टी-शर्ट पहनकर विदेशों तक में ये बताया जाने लगा कि भारत में स्त्री सुरक्षित नहीं है. विदेश की बातें फिर कभी क्योंकि वहां बैठे लोग और देश में बैठे उनके एजेंट देश की छवि वैश्विक स्तर पर ख़राब करने को सदैव से आमादा रहे हैं. बहरहाल, देश में कठुआ कांड को लेकर इस तरह की मोर्चेबंदी की जाने लगी जैसे भाजपा और हिंदूवादी लोग बलात्कार करने में लगे हैं. हिन्दू धर्म पर इसी बहाने न केवल उंगली उठाई गई बल्कि पूरी तरह से बदनाम भी किया गया. बहुतेरे बुद्धिभोगी टाइप लोगों को अपने हिन्दू होने पर, अपने पुरुष होने पर शर्म आने लगी. इसके बाद भी उन्होंने न अपना हिन्दू धर्म त्यागा और न ही पुरुष से लिंग परिवर्तन किया.


आरोपों, प्रत्यारोपों के बीच बहुत से ऑडियो, बहुत से वीडियो, बहुत सी रपटों ने कठुआ कांड की असलियत को सामने लाने का काम भी किया. घटना से सम्बंधित तमाम सारी बातों के बीच मीडिया में खबर छपी कि दुष्कर्म के एक आरोपी उस दिन अपनी परीक्षा दे रहा था. इस बावत साक्ष्य भी प्रस्तुत किये गए. इसी के साथ हल ही में खबर आई कि पीड़ित बच्ची के साथ रेप नहीं हुआ था. ये भी बताया गया कि उसकी खोपड़ी भी सुरक्षित थी जबकि इससे पहले बताया जा रहा था कि बच्ची की हत्या सिर कुचल कर की गई थी. मंदिर के सम्बन्ध में भी अनेक तथ्य सामने आने से और मृतक बिटिया की स्थिति से ये समझाने की कोशिश की गई कि अपराध मंदिर में नहीं हुआ था. रेप हुआ या नहीं, घटना मंदिर में हुई या नहीं, हत्या सिर कुचल कर की गई या अन्य तरीके से इन बिन्दुओं पर चर्चा होने से बेहतर है कि अब पहली चर्चा इस बात पर हो कि एक बेटी की हत्या हुई है, एक बच्ची की मौत हुई है उसकी यदि हत्या हुई है तो आरोपी कौन है? और यदि उसकी मृत्यु किसी दुर्घटना से या फिर किसी असामान्य स्थिति में हुई है तो वह क्या है? मीडिया या सोशल मीडिया इन बिन्दुओं पर चर्चा नहीं हो रही है. अभी तक कठुआ कांड में रेप घटना के बारे में बोलने वाले पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट को गलत बताने में लग गए हैं और इससे इतर लोग दूसरे तरह की बयानबाजी में लग गए हैं.


एक बच्ची की मृत्यु की जाँच के साथ-साथ एक जाँच और आवश्यक है कि किसने और क्यों इस पूरे मामले को हिन्दू-विरोधी रंग देने की कोशिश की? कैसे एक योजनाबद्ध तरीके से देश भर में उस बच्ची का नाम, फोटो सार्वजनिक किया गया? किस तरह से सामाजिक अपराधिक घटना को राजनैतिक रंग देकर किसके द्वारा अपना उल्लू सीधा करने का प्रयास किया गया? ऐसा नहीं है कि देश में रेप की या फिर बच्चियों के साथ रेप की यह पहली वारदात थी. इसके पहले भी ऐसी घिनौनी हरकतें होती रही हैं किन्तु इसी बार इस मामले को मजहबी रंग देने की कोशिश की गई है, इसकी भी जाँच की जानी चाहिए कि आखिर वे कौन लोग हैं जो संवेदनशील मामले को धार्मिक रंग देने में लगे थे? शर्मनाम यह रहा कि इस पूरे मामले में सोशल मीडिया के वे लोग भी पुरजोर ढंग से सरकार के, हिंदुत्व के खिलाफ दिखे जो अपने आपको बुद्धिजीवी बताते नहीं थकते हैं. इस मामले में एक शर्मनाक पहलू और भी सोशल मीडिया में निकल कर आया कि इस मामले के सापेक्ष समूचे माहौल को पुरुष-विरोधी साबित किया जाने लगा. बहुत सी महिलाओं द्वारा अपनी प्रोफाइल काली करके महिला-विहीन समाज होने की स्थिति बनाई गई. यहाँ उनकी खुद की समझ से परे था कि कैसे एक बच्ची की हत्या और यदि रेप हुआ है तो वह समाज में महिला-पुरुष विरोधी आन्दोलन की आधारभूमि कैसे बन सकता है. (इस विषय पर बाद में)

कुल मिलाकर जिन ताकतों ने एक बच्ची की मौत को धार्मिक उन्माद में बदलने की साजिश रची थी, वे सफल नहीं हो सके. हाँ, ऐसे लोग सोशल मीडिया पर अवश्य ही माहौल ख़राब करने में सफल रहे. किसी आपराधिक घटना को संवेदना-रहित बनाकर अपने-अपने तर्क-कुतर्क करते देखे गए. रेप की आड़ में पुरुष समाज को गाली देते देखे गए. मंदिर को निशाना बनाकर हिन्दू धर्म को कलंकित करते देखे गए. फ़िलहाल, सबके अपने-अपने तर्क-कुतर्क हैं मगर सत्य यह है कि एक बच्ची की मौत हुई है, सत्य यह भी है कि कतिपय स्वार्थी ताकतों ने धार्मिक उन्माद फ़ैलाने की कोशिश की है. ऐसे में जाँच एजेंसियों की, सरकार की जिम्मेवारी बनती है कि वह पूरी गंभीरता के साथ इस मामले की जाँच करे और इसके दोषी लोगों को कड़ी से कड़ी सजा दी जाये.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें