शिक्षा लेनी है तो किसी न
किसी शैक्षणिक संस्था में प्रवेश लेना ही होगा. नियमानुसार प्रवेश लिए भी गए. जिन
संस्थानों को शिक्षा के लिए खोला गया था वे प्रवेश के दिनों में मक्खी मारते नजर आ
रहे थे और जो संस्थाएं व्यवसाय के लिए खुल गए थे वे नोट छापने में लगे थे. कमोबेश
पूरे प्रदेश में एक जैसी ही स्थिति होगी किन्तु जो अपनी आँखों देखा वो आपकी आँखों
के सामने है. जिले में इस बार विशुद्ध व्यावसायिक तरीके से बच्चों के प्रवेश स्ववित्तपोषित
महाविद्यालयों में किये गए थे. जगह-जगह टंगे बैनर, होर्डिंग, पोस्टर में साफ़-साफ़
अपने-अपने महाविद्यालयों के विभिन्न पाठ्यक्रमों के शुल्क खोल दिए गए थे. अधिक से
अधिक बच्चे उनके ही महाविद्यालय का उत्पाद लें इसके लिए महाविद्यालयों के प्रबंधक
अपनी गाड़ी तैयार किये चौबीस घंटे तत्पर रहते. एक फोन कॉल की जरूरत भर होती थी और
प्रबंधक या तो खुद अथवा अपने किसी घनघोर विश्वस्त चेले को उस बच्चे अथवा फोन करने
वाले की सेवा में हाजिर कर देता. प्रवेश शुल्क देने के पहले, एडमीशन लेने से पहले
न केवल प्रवेश लेने वाला विद्यार्थी बल्कि उसके अभिभावक किसी सामान की खरीददारी की
तरह जबरदस्त मोलभाव करते नजर आते. अभी प्रवेश लिया नहीं गया है, सम्बंधित ग्राहक
महाविद्यालय के हाथों से निकल न जाये इसलिए तमाम तरह की योजनायें, तमाम तरह के लाभ
उसको समझाए जाने लगते हैं. मोलभाव की स्थिति के बाद प्रवेश शुल्क बाकी किसी भी
शैक्षणिक दुकान से कम ही रहता है. इसके अलावा अब शुरू होता है एक के साथ एक फ्री
जैसा व्यापार.
एक बार प्रवेश लेने के बाद
पूरे साल महाविद्यालय न आने देने की सुविधा. क्लास में उपस्थिति सम्बन्धी किसी भी
नियम से पार ले जाने की जिम्मेवारी प्रबंधक महोदय उठाते हैं. सुविधाएँ मात्र इतने
तक ही सीमित नहीं रहती हैं. असल में यह एक तरह का जम्बो पैक होता है जो लगातार और
विस्तृत होता जाता है. यदि कोई विद्यार्थी ऐसे विषयों का चयन करता है जिनमें किसी
तरह की प्रयोगात्मक परीक्षा नहीं होनी है तब तो कोई बात नहीं. यदि एक भी विषय
प्रयोगात्मक परीक्षा से सम्बंधित हुआ नहीं कि प्रबंधक जी के सिर एक और जिम्मेवारी
आ गई. ये और बात है कि इस जिम्मेवारी को सफलतापूर्वक निपटाने के लिए प्रबंधक जी
विद्यार्थियों से उसका भी शुल्क वसूल लेते हैं. इसी तरह के शुल्क ही इन दुकानों का
लाभ हैं. फ़िलहाल तो प्रबंधक महोदय इस तरह के शुल्क वसूली के नाम पर उस समय ख़ामोशी
ओढ़े रहते हैं जबकि कोई विद्यार्थी प्रवेश लेने की स्थितिमें होता है. इस एक बिंदु
को उसी समय छोड़कर बाकी सारे बिंदु किसी भी बच्चे को, किसी भी अभिभावक को ऐसे समझाए
जाते हैं मानो सामने कोई बहुत बड़ी पार्टी बैठी है और लाखों-करोड़ों के टेंडर इधर से
उधर किये जाने हों. संभवतः इतनी सुविधाएँ तो बैंक ने नीरव मोदी को न दी होंगी, न
ही विजय माल्या उठा पाए होंगे जितनी प्रवेश लेने के समय प्रबंधक देते हैं या फिर
अभिभावक और विद्यार्थी लाभ उठाते हैं.
इन सुविधाओं के बाद आती है
मूल सुविधा की बात, जिसके लिए किसी भी संस्था में बच्चा प्रवेश लेता है. और वह है साल
के आखिर में होने वाली परीक्षा. चूँकि यही सुविधा किसी भी शैक्षणिक दुकान की
आधारशिला होती है, उसका मूल होती है. यदि इस सुविधा में कोई भी प्रबंधक असफल हो
जाता है, कोई भी संस्था असफल हो जाती है तो वहाँ से किसी भी तरह के उत्पाद की
बिक्री पर ग्रहण लग जाता है. परीक्षा के समय प्रबंधकों द्वारा उपलब्ध करवाई जाने
वाली यह सुविधा होती है विद्यार्थियों को नक़ल करवाने की. न केवल नक़ल करवाने की वरन
उसे किसी भी तरह से पकड़ने से बचाने की. कुछ प्रबंधक इससे भी एक कदम आगे जाकर
अतिरिक्त सुविधा देने का दम भरते हैं. वह एक आगे का कदम होता है किसी विद्यार्थी
के नक़ल करते पकड़े जाने पर उसे विश्वविद्यालय से पाक साफ़ घोषित करवाना. उसके अंतिम
परिणाम को साफ़-सुथरा दर्शाना. जो महाविद्यालय सदृश्य दुकानें इस तरह की सुविधाएँ
देने का काम नहीं करती हैं, वे निरन्तर घाटे का बजट बनाती रहती हैं और बाकी
संस्थाओं के सामने हेय दृष्टि से देखी जाती हैं.
पिछले एक-दो सालों में थोक के
भाव से बढ़ती इन दुकानों पर अंकुश लगाने का विचार सरकारी स्तर पर किया गया. हर
महाविद्यालय में प्रत्येक कमरे में कैमरे लगवाने का आदेश जारी किया गया. सभी
कैमरों को इंटरनेट से जोड़कर उन्हें विश्वविद्यालय से सम्बद्ध किया गया. कैमरे लगे
तो लगा जैसे प्रबंधकों के लाभ पर लाठी गिरी है. परीक्षा ही इन व्यापारियों का मौसम
होता है जहाँ से लाभ कमाया जाता है. इनकी परीक्षाओं में कई-कई बेरोजगार भी रोजगार
पा जाते हैं. नक़ल के लिए पर्चियां बनाने वाले नकलनवीस. कमरे में कैमरे की उपस्थिति
को धता बताते हुए बोलकर नक़ल करवाने वाले वक्ता. किसी अनुपस्थित विद्यार्थी के
स्थान पर किसी अन्य को बिठाकर परीक्षा करवाने वाले सहायक. उड़नदस्ते की पल-पल की जानकारी देने वाले सूचनाधिकारी. उड़नदस्ते
को, पर्यवेक्षक को सेट करने वाले सेटिंगबाज़. नक़ल में निश्चित अंकों से पास करवाने का ठेका
लेने वाले ठेकदार. किसी भी तरह की गतिविधि को मीडिया में न पहुँचने देने की
जिम्मेवारी निभाते मीडिया नियंत्रक. जितने काम, उतने नाम. सबका साथ सबका विकास, हर
हाथ को काम, साथी हाथ बढ़ाना, ज्योति से ज्योति जलाते चलो जैसे नारे यहीं चरितार्थ
होते दिखाई देते हैं.
इस बार सरकार बदले-बदले से
नजर आ रहे हैं. प्रदेश आलाकमान के साथ-साथ जिला आलाकमान भी सख्ती की मुद्रा में
है. लाभ के मौसम में अब दुकानें बदल दी गई हैं. लाभ किसी और ने उठाया, परीक्षा कोई
और करवाएगा. सभी परीक्षा केंद्र बदल दिए गए हैं. इससे दुकानदारों में खलबली मची
हुई है. समझ नहीं आ रहा है कि किसे सेट किया जाये. महाविद्यालय को, प्रशासन को,
पर्यवेक्षक को, विश्वविद्यालय को? ऐसे में सम्बन्ध फिर जागते हैं. व्यापार में सब
भले ही गला-काट प्रतियोगिता का हिस्सा बने रहते हों मगर जब विपदा आई तो सब एक हो
जाते हैं. कुछ ऐसा यहाँ भी होता दिख रहा
है. इस हाथ दे उस हाथ ले, चोर-चोर मौसेरे भाई, तू डाल-डाल हम पात-पात जैसे वाक्य
इन प्रबंधकीय दुकानदारों ने सत्य करने शुरू कर दिए. आज तुम हमारे मददगार बनो, कल
हम तुम्हारे काम आयेंगे की तर्ज पर परीक्षा के पहले दिन ही वही गंध फैलाई गई जो
सदैव फैलती थी. अब नक़ल रोकने का जिम्मा सिर्फ और सिर्फ जिला प्रशासन के कंधे पर
है. यदि वह निष्पक्ष रूप से सफल हो जाता है तो बेरोजगारों को पैदा करती ये दुकानें
भविष्य में बंद होती नजर आएँगी और यदि ऐसा न हो सका तो फिर बहुत बड़ा तमाचा जिला प्रशासन
के गाल पर, विश्वविद्यालय के गाल पर, सरकार के गाल पर इन प्रबंधकों द्वारा पड़ेगा.
हम और आप बस दुकानें बंद होने वाले उस हंगामे की गूँज या इस तमाचे की गूँज सुनने
को तैयार रहें.
अमूल्य लेख !!
जवाब देंहटाएंअद्भुत ,
जवाब देंहटाएंसाझा करने के लिए धन्यवाद !
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जवाब देंहटाएंlifestyle matters