हाल ही में संपन्न हुए गुजरात विधानसभा चुनाव में नोटा को मिले
मतों के चलते यह फिरसे चर्चा में आ गया है. गुजरात चुनाव में पाँच लाख से अधिक मतदाताओं
द्वारा नोटा का प्रयोग करना इसके चर्चा का आधार नहीं बना बल्कि गुजरात में नोटा का
इतना अधिक प्रयोग करना इसकी चर्चा का आधार बना. गुजरात विगत कई वर्षों से राष्ट्रीय
राजनीति में, मीडिया में चर्चा का विषय बना रहा है. अब तो देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र
मोदी का वहाँ से होना भी गुजरात को और भी अधिक चर्चा में बनाये रखता है. इसके साथ-साथ
सौ से अधिक विधानसभाओं में नोटा भाजपा और कांग्रेस के बाद तीसरे नंबर पर रहा. ये भी
अपने आपमें चर्चा का विषय होना चाहिए था मगर उससे ज्यादा चर्चा का विषय यह रहा कि गुजरात
में नोटा के द्वारा मतदाताओं ने भाजपा को नकारने का काम किया. फ़िलहाल इन राजनैतिक चर्चाओं
से इतर यदि मतदाताओं द्वारा नोटा के प्रयोग किये जाने पर ही गौर करें तो गुजरात के
अलावा अन्य विधानसभाओं के नोटा मतों की संख्या हैरान करने वाली है. हालिया विधानसभा
चुनावों में बिहार में नोटा को 9 लाख 47 हज़ार 276 वोट मिले जो कुल पड़े वोट का 2.5%
है. पश्चिम बंगाल में 8 लाख 31 हजार 835, तमिलनाडु
में 5 लाख 57 हजार 888, गुजरात में 5 लाख 51 हजार 615 और केरल
में 1 लाख 7 हज़ार लोगों ने नोटा दबाया. यदि लोकसभा चुनाव परिणामों को देखें तो 2014
के लोकसभा चुनाव में करीब 60 लाख लोगों ने नोटा का विकल्प चुना. यह 21 पार्टियों को
मिले वोटों से ज़्यादा है.
इस समय देश में शायद ही कोई ऐसा हो जो नोटा के बारे में न जानता
हो. नोटा (NOTA) का अर्थ None of the Above यानि इनमें से कोई नहीं है. इसका अर्थ यह है कि अगर मतदाता को उनके क्षेत्र
के विभिन उम्मीदवारों में से कोई भी सही नहीं लग रहा है तो वह NOTA का बटन दबा सकता है. ईवीम मशीन में None Of The Above (NOTA) का गुलाबी बटन होता है. नोटा को लेकर चुनाव आयोग
ने 2009 में कोर्ट के सामने इच्छा जताई थी कि मतदाताओं को यह सुविधा उपलब्ध कराई जाए.
सन 2004 में एक संस्था द्वारा दायर की गई याचिका पर लम्बी बहस
के बाद सन 2013 में चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के जरिये NOTA
को चुनाव में जगह दिलवाई. 27 सितम्बर 2013
को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि नकारात्मक वोट भी (अनुच्छेद 19-1ए) के अन्तर्गत अभिव्यक्ति की आजादी का संवैधानिक अधिकार है, जिसके लिए मनाही नहीं की जा सकती. इसके बाद ही नोटा को चुनावों में शामिल होने
का मौका मिला. भारत के अलावा कोलंबिया, यूक्रेन, ब्राजील, बांग्लादेश, फिनलैंड,
स्पेन, स्वीडन, चिली,
फ्रांस, बेल्जियम, यूनान
आदि में नोटा लागू है. रूस में 2006 तक यह विकल्प मतदाताओं के लिए उपलब्ध था. माना
जाता है कि मतपत्र में नोटा का पहली बार प्रयोग 1976 में अमेरिका के कैलिफोर्निया में
इस्ला विस्टा म्युनिसिपल एडवाइजरी काउंसिल के चुनाव में हुआ था. वैसे नोटा लागू होने
के पहले भी मतदाता के पास किसी को भी अपना मत नहीं देने का अधिकार था मगर उसे अलग से
एक फॉर्म भरना होता था और अपनी पहचान बतानी होती थी. ईवीएम में नोटा का विकल्प होने
से अब पहचान जाहिर करने की जरूरत नहीं है. 2013 से वोटिंग मशीन
में नोटा का प्रयोग हो रहा है. चुनावों के दौरान मत देने के लिए तो प्रोत्साहित किया
जाता है मगर नोटा का बटन दबाने के लिए ऐसा नहीं किया जाता. इसके बाद भी नोटा लोकप्रिय
होता जा रहा है.
नोटा लागू करने का फैसला राजनीति से भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए
किया गया. माना जा रहा है कि इस कदम से राजनीतिक दल साफ-सुथरे प्रत्याशियों को टिकट
देंगे. दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो रहा. नोटा के लिए पीयूसीएल संस्था ने 2004 से इसकी
लड़ाई लड़ी है. NOTA का कानून लाने के लिये पहले तो सरकार राजी
नहीं थी. एक NGO-पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (PUCL)
की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के चलते केन्द्र मे बैठी कांग्रेस
सरकार NOTA का विकल्प देने पर तो सहमत हो गयी लेकिन इसके नियमों
के कारण NOTA पूरी तरह
बेअसर हो जाता है.
NOTA कैसे बेअसर है, इसे एक
उदाहरण से समझा जा सकता है. माना किसी निर्वाचन
क्षेत्र में तीन उम्मीदवार X,
Y, Z हैं. मतदाता उन्हें
वोट नहीं देना चाहते और NOTA का इस्तेमाल करते हैं. यदि कुल 100000 मतदाता हैं और यह मानते हुये कि
शत-प्रतिशत मतदान होता है. 90000 मतदाता NOTA का बटन दबाते हैं. शेष
10000 मतदाता जो वोटिंग करते है, उसके परिणाम कुछ इस
प्रकार से हैं-
X को 3333 मत, Y को 3333 मत, Z को 3334 मत.
इस तरह उम्मीदवार
Z जिसे 3334 (सर्वाधिक) वोट मिले हैं, उसे विजयी घोषित कर दिया जायेगा. नोटा में मिले नब्बे हजार मतों का कोई
लाभ नहीं हुआ.
दरअसल मतगणना के दौरान नोटा मतों की गिनती उसी प्रकार होती है
जिस प्रकार उम्मीदवारों के मतों की गिनती होती है लेकिन किसी भी स्थिति में इन मतों
की वजह से चुनाव निरस्त नहीं होगा. नोटा को लोगों ने राइट टु रिजेक्ट के तौर पर लिया
लेकिन चुनाव आयोग यह स्पष्ट कर चुका है कि नोटा राइट टु रिजेक्ट नहीं है. यदि किसी
चुनाव क्षेत्र में सभी उम्मीदवारों से अधिक मत नोटा को मिल जाते हैं तो भी सबसे अधिक
मत पाने वाला उम्मीदवार ही विजयी होगा. कानूनन नोटा को मिले मत,
अयोग्य मत हैं जिनका कोई मतलब नहीं है. चुनाव में हार-जीत का फैसला योग्य
वोटों के आधार पर ही होता है, चाहे उम्मीदवार को सिर्फ एक वोट
ही क्यों न मिला हो. यहां तक कि उम्मीदवारों की जमानत जब्त करने के लिए भी नोटा वोटों
को नहीं माना जाता. जमानत जब्त करने के लिए कुल पड़े योग्य वोटों का 1/6 हिस्सा ही गिना जाता है.
अब सवाल यह है कि जब चुनाव पर नोटा का कोई असर नहीं पड़ता तो फिर
नोटा क्यों? एक जागरूक एवं जिम्मेदार नागरिक होने के नाते
हमारा दायित्व है कि हम सरकार ने नोटा कानून में संशोधन की मांग करें. यदि किसी चुनाव
में नोटा को सर्वाधिक मत मिलते हैं तो वहां का चुनाव रद्द करके फिर से चुनाव कराए जाएं.
जिन नेताओं के खिलाफ लोगों ने नोटा इस्तेमाल किया है उनके आजीवन चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध
लगना चाहिये जिससे लोकतांत्रिक व्यवस्था को नए आयाम मिलें. नए प्रत्याशी आएं और हम
उनमें से अच्छे प्रत्याशी का चुनाव कर सकें. अगर ऐसा नही होता तो नोटा का कोई मतलब
नहीं है. पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त टी.एस. कृष्णमूर्ति ने उन निर्वाचन क्षेत्रों
में फिर से चुनाव कराने की वकालत की है जहां जीत का अंतर नोटा की तुलना में कम रहे
और विजयी उम्मीदवार एक तिहाई मत जुटाने में भी नाकाम रहे. उन्होंने पीटीआई को बताया
कि इस उपाय को लागू करने के लिए कानून बनाने की जरूरत है.
सुपर
जवाब देंहटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 70वां भारतीय सेना दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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