14 जनवरी 2018

विशेष के मायने तय करने होंगे अब

माननीय न्यायाधीशों का मीडिया के द्वारा देश के सामने आ जाना अपने आपमें आश्चर्यजनक है. इसको ऐसे किसी रूप में नहीं देखा जाना चाहिए कि चार न्यायाधीशों के मीडिया में दिए गए वक्तव्य से कोई तूफ़ान आ गया हो. इसे ऐसे भी नहीं समझना चाहिए कि ये किसी भी तरह से लोकतंत्र पर तमाचा है. किसी भी तरह के आकलन के पहले न्यायालयीन व्यवस्था को जानने-समझने की जरूरत है. और विडम्बना ये है कि बिना कुछ जाने-समझे हम सभी लोग किसी भी घटना के सन्दर्भ में अपने-अपने खाँचे में उसे फिट करने लगते हैं.


न्यायालयीन प्रक्रिया में पारदर्शिता से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण निष्पक्षता को बनाये रखने के लिए एक तरफ की घोषित-अघोषित व्यवस्था की गई है कि न्यायाधीश किसी तरह से खुद को सार्वजनिक नहीं करेंगे. इसके अंतर्गत उनका समारोहों, कार्यक्रमों, प्रेस वार्ता आदि को लेकर किंचित नियम से बना दिए गए हैं. न्याय की, न्यायालय की, न्यायाधीशों की गरिमा बनी रहे इसके लिए उनके प्रति असम्मान दिखाए जाने को भी अत्यंत गंभीर अपराध सा माना गया है. न्याय प्रक्रिया के प्रति भले ही एक तरह का सम्मान-भाव समाज के सामने दिखाया जाता रहा हो किन्तु विगत कई वर्षों की न्यायिक प्रक्रिया के चलते आमजन का न्यायालयीन व्यवस्था से मोह भंग सा हुआ है. इसी मोह-भंग का परिणाम है कि बहुतेरे मामलों में जनता ने कानून को हाथ में लेकर खुद ही न्याय करना शुरू कर दिया है. न्यायालयों के प्रति, न्यायाधीशों के प्रति, अधिवक्ताओं के प्रति कतिपय कानूनी प्रक्रिया के दांव-पेंच में उलझने से बचने के लिए आमजन खुलेआम उसके प्रति अशिष्टता नहीं दिखा पा रहा है. ऐसा भले हो किन्तु सम्पूर्ण व्यवस्था के प्रति रोष तो है ही.

कहीं न कहीं ऐसा कुछ न्यायालयीन व्यवस्था में संलग्न लोगों में भी होता होगा. ऐसा संभव ही नहीं कि अपने भीतर की व्यवस्था, अव्यवस्था से परिचित न्यायाधीश नहीं होंगे. ऐसा भी संभव नहीं कि बरसों-बरस न्याय की आस में भटकती जनता के आक्रोश, रोष का भान माननीय न्यायाधीशों को नहीं होगा. जिस तरह से न्यायालय से बाहर अपने मनोनकूल वातावरण देखे जाने की व्यवस्था बना ली गई है, संभव है कि उसके भीतर कुछ इसी तरह की व्यवस्था बनने लगी हो. मनोनकूल व्यवस्था के चलते महत्त्वपूर्ण केस इधर से उधर हस्तांतरित किये जाने लगे हों, जैसा कि संकेत दिए गए. इस स्थिति के कारण उसी तरह की हताशा इन माननीयों में प्रकट होना ज़ाहिर है जैसी कि आमजन में अपने न्याय का रास्ता देखते-देखते पनपने लगती है. संभव है कि लगातार कई-कई मामलों में हस्तांतरण की गति देखने के बाद इनका मानसिक संतुलन उस संयम का परिचय न दे सका हो जैसा कि इनसे अपेक्षा की जाती है. इसके चलते वे माननीयजन कतिपय बयान देते नजर आये. समझने वाली बात है कि उनका किसी भी तरह का कोई सार्वजनिक जीवन नहीं दिखाई देता है. अपने कार्यकाल के दौरान वे माननीयजन सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण कारागार सी स्थिति गुजार रहे होते हैं, जहाँ तमाम तरह की औपचारिकताओं की भरमार होती है. इनके मध्य संभव है कि अपने मन की अकुलाहट को अपने किसी बहुत ख़ास (विशेष) के सामने रखने की कोशिश में उसकी सलाह पर वे लोग मीडिया के सामने उतर आये.


आखिर 'देश में लोकतंत्र खतरे में है' के द्वारा किसी विशेष को नुकसान पहुँचाना और किसी विशेष को सहायता पहुँचाना अवश्य ही रहा होगा. कौन नुकसान में रहेगा, कौन फायदे में रहेगा इसका आकलन होना शेष है किन्तु मीडिया के सामने आकर न्यायाधीशों ने देशव्यापी एक नई बहस अवश्य ही आरम्भ करवा दी है. सामान्यजन जैसे उनके कदम से अब इस पर भी विचार किया जाना अपेक्षित है कि आखिर उनके विशेष स्थान, विशेष महत्त्व के क्या मायने हैं?

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