तीन तलाक विधेयक मामला इस समय देश में चर्चा का विषय बना हुआ है. एक तरफ इसे
राजनैतिक कदम बताया जा रहा है वहीं दूसरी तरह इसे मुस्लिम महिलाओं के पक्ष में उठाया
गया सकारात्मक कदम बताया जा रहा है. सम्पूर्ण प्रकरण मार्च 2016 में उतराखंड की महिला शायरा बानो ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर करके
तीन तलाक, हलाला निकाह और बहुविवाह को असंवैधानिक घोषित करने
की माँग के साथ शुरू हुआ. शायरा बानो की याचिका के बाद सर्वोच्च न्यायालय की संविधान
पीठ ने बहुमत के निर्णय से एक साथ तीन बार तलाक देने की प्रथा को निरस्त करते हुए इसे
असंवैधानिक, गैरकानूनी और शून्य करार दिया. अदालत ने कहा कि यह
प्रथा कुरान के मूल सिद्धांत के खिलाफ है. प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पाँच
सदस्यीय संविधान पीठ ने अपने 365 पेज के फैसले में तीन तलाक यानि
कि तलाक-ए-बिद्दत को निरस्त करते हुए इस प्रथा पर छह महीने की रोक लगाने की हिमायत
के साथ-साथ सरकार से कहा कि वह इस संबंध में कानून बनाए. निर्णय में यह भी कहा गया
कि यदि केन्द्र छह महीने के भीतर कानून नहीं बनाता है तो तीन तलाक पर यह अंतरिम रोक
जारी रहेगी.
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद केंद्र सरकार द्वारा द मुस्लिम वीमेन प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स इन मैरिज
एक्ट नाम से विधेयक लोकसभा में पेश किया गया. लोकसभा ने इस मुस्लिम महिला (विवाह
अधिकार संरक्षण) विधेयक 2017 को मंजूरी दे दी. इसके बाद इसे
कानून बनाने की दृष्टि से उच्च सदन यानि कि राज्यसभा में भेजा गया. राज्यसभा में केंद्र
सरकार का बहुमत न होने के कारण सभी को इस बात का अंदेशा था कि वहां विपक्ष इस विधेयक
को पारित नहीं होने देगा, और ऐसा हुआ भी. इस विधेयक को प्रस्तुत
करते समय कानून मंत्री ने सदन से चार अपील की थी कि इस बिल को सियासत की सलाखों से
ना देखा जाए, इस बिल को दलों की दीवारों में ना बांटा जाए, इस बिल को मजहब के तारजू पर ना तोला
जाए और इस बिल को वोट बैंक के खाते से ना देखा जाए. उसके बाद भी तमाम राजनैतिक दलों
द्वारा भी इस विधेयक के विरोध में उठाया गया कदम समझ से परे है. विधेयक में स्पष्ट
रूप से उल्लेख है कि अगर कोई तीन तलाक देता है तो उसको तीन साल की सजा के साथ जुर्माना
होगा. इसके अनुसार पीड़ित महिला मजिस्ट्रेट से नाबालिग बच्चों के संरक्षण का भी अनुरोध
कर सकती है. इस मुद्दे पर अंतिम फैसला न्यायाधीश ही करेंगे.
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय और केंद्र सरकार की तत्परता को देखते हुए जहाँ
मुस्लिम महिलाओं में प्रसन्नता का माहौल बना वहीं कट्टर इस्लामिक व्यक्तियों में इसे
लेकर आक्रोश देखने को मिला. केंद्र सरकार के इस फैसले का विरोध ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल
लॉ बोर्ड द्वारा किया गया है. बोर्ड का कहना है कि यह उनका मजहबी मामला है और इसमें
किसी बाहरी का हस्तक्षेप मंजूर नहीं. तलाक-ए-बिद्दत को बोर्ड शरीयत का कदम स्वीकारता
है और इसे कुरान की सहमति बताता है. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा जिस कुरान की दुहाई
दी जा रही है, जिस शरीयत की बात की जा रही है उसमें भी इस तरह के कृत्य
का प्रावधान नहीं है. इस्लाम में भी तलाक को बुरा माना गया है. इसके बाद भी ऐसी व्यवस्था
की गई है कि यदि पति-पत्नी में किसी भी तरह से सामंजस्य नहीं हो पा रहा है तो वे अलग
होकर अपनी ज़िन्दगी को अपनी मर्ज़ी से बिताएं. इसी कारण से विश्व भर में कानूनन तलाक़
की व्यवस्था को संवैधानिक स्थिति प्राप्त है. इस्लाम में भी पैगम्बरों के दीन (धर्म)
में तलाक़ की गुंजाइश बनाये रखी गई है. कुरान में कहा गया है कि अगर तुम्हें शौहर बीवी
में फूट पड़ जाने का अंदेशा हो तो एक हकम (जज) मर्द के लोगों में से और एक औरत के लोगों
में से मुक़र्रर कर दो, अगर शौहर बीवी दोनों सुलह चाहेंगे तो अल्लाह
उनके बीच सुलह करा देगा, बेशक अल्लाह सब कुछ जानने वाला और सब
की खबर रखने वाला है. (सूरेह निसा-35). कुरान में इसके बाद इद्दत
की व्यवस्था है और यदि पति, पत्नी में इस दौरान सुलह हो जाती
है तो तलाक का फैसला वापस लिया जा सकता है. इस सम्बन्ध में सूरेह बक्राह-229 में व्यवस्था है कि फिर अगर शौहर बीवी में इद्दत के दौरान सुलह हो जाए,
तो फिर से वो दोनों बिना कुछ किए शौहर और बीवी की हैसियत से रह सकते
हैं. इसके लिए उन्हें सिर्फ इतना करना होगा कि जिन गवाहों के सामने तलाक दी थी,
उन्हें खबर कर दें कि हमने अपना फैसला बदल लिया है, कानून में इसे ही रुजू करना कहते हैं और यह ज़िन्दगी में दो बार किया जा सकता
है, इससे ज्यादा नहीं.
मुस्लिम पर्सनल बोर्ड को शायद ये बातें दिखाई नहीं देती हैं या फिर वह किसी
राजनैतिक लाभ के चलते मुस्लिम महिलाओं के हितार्थ बनने वाले इस कानून का विरोध कर रहे
हैं. यहाँ समझने की आवश्यकता है कि जब तीन तलाक को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जब तीन
तलाक व्यवस्था को गैर-कानूनी अर्थात अपराध बताया गया है तो फिर ऐसे अपराध की सजा में
क्या समस्या है. इस विधेयक के विरोधियों द्वारा स्पष्ट नहीं किया जा रहा है कि आखिर
तीन साल की सजा होने पर, यह मामला गैर-जमानती होने का क्या
दुष्प्रभाव समाज पर पड़ेगा? दरअसल जिस तरह की मजहबी कट्टरता इस्लाम
में अभी तक व्याप्त है उसके अनुसार इस्लामिक कट्टरपंथी किसी भी रूप में अपनी महिलाओं
को स्वतंत्र देखना नहीं चाहते हैं.
अब जबकि केंद्र सरकार सर्वोच्च न्यायालयय के निर्णय के बाद सक्रियता दिखा
रही है तब सभी लोगों को मिलकर मुस्लिम महिलाओं के हितार्थ आगे आने की आवश्यकता है.
एक बार में, एकसाथ तीन तलाक बोलकर, ई-मेल करके,
लिखकर, मोबाइल से सन्देश भेजकर आदि तमाम तरह से
मुस्लिम महिलाओं को बेघर कर दिया जाता रहा है. उस समय तमाम राजनैतिक दलों ने,
मुस्लिम बोर्ड ने विचार नहीं किया कि उन महिलाओं का सहारा कौन बनेगा?
उनके लिए गुजारा भत्ता कहाँ से आएगा? उनके बच्चों
का भविष्य क्या होगा? अब जबकि ऐसा कृत्य गैर-जमानती अपराध बनने
वाला है, तीन साल सजा का प्रावधान होने वाला है तब सभी को इसकी
चिंता सताने लगी. देखा जाये तो यह पूरी तरह से वोट-बैंक का खेल है. भाजपा के बढ़ते जनाधार
के चलते सभी तरफ से अपनी-अपनी जमीन खो चुके राजनैतिक दलों के पास और कुछ शेष नहीं है.
वे अपने खोये हुए जनाधार को इस विधेयक के विरोध के बहाने वापस पाने का मंसूबा लगाये
बैठे हैं. इससे पूर्व भी शाहबानो प्रकरण में राजनीति अपना खेल दिखाकर मुस्लिम महिलाओं
के खिलाफ काम कर चुकी है. अब इक्कीसवीं सदी में कम से कम देश में इस बदलाव के प्रति
सकारात्मकता दिखाए जाने का अवसर है. केंद्र सरकार मुस्लिम महिलाओं के हितार्थ कार्य
कर ही चुका है अब विपक्ष के पास अवसर है कि वह इस विधेयक के पक्ष में खड़े होकर अपनी
स्थिति को कुछ हद तक सुधार ले. न सही मुस्लिम महिलाओं के हितार्थ, अपने मुस्लिम वोट-बैंक को वापस पा लेने के अपने राजनैतिक लाभ के लिए ही इस
विपक्ष को विधेयक के पक्ष में खड़ा होना चाहिए.
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ओ. पी. नैय्यर और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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