बुन्देलखण्ड
क्षेत्र सदैव से पर्वों-त्योहारों से सराबोर रहा है. यहाँ भांति-भांति के अनुष्ठान
आये दिन संपन्न होते रहते हैं. मेलों, पर्वों,
त्योहारों से यहाँ की संस्कृति के दर्शन भी भली-भांति होते रहते हैं.
इसी तरह के आयोजनों में टेसू-झिंझिया का विवाह भी शामिल है. इस आयोजन में किशोर वय
के युवक-युवतियाँ भाग लेते हैं और बड़े ही उत्साह के साथ इसे संपन्न करते हैं. आश्विन
माह में मनाये जाने वाले इस त्यौहार में युवक और युवतियाँ अपने-अपने अलग-अलग समूह बनाकर
उत्सव मनाते हैं और फिर शरद पूर्णिमा को, जिसे बुन्देलखण्ड में
टिसुआरी पूनों के नाम से जाना जाता है, दोनों समूह मिलकर टेसू
और झिंझिया का विवाह रचाते हैं.
टेसू
–
इस
उत्सव को आश्विन माह में मनाया जाता है. इसे किशोर वय के युवकों द्वारा मनाया जाता
है. इसमें बांस की खपच्चियों के ढाँचे को चमकीले कागज से सजाकर पुरुष आकृति बनाते हैं
जिसे टेसू कहा जाता है. इस पुतले को राजसी वस्त्रावरण प्रदान किया जाता है. तीर-कमान,
तलवार-ढाल आदि के अलावा सर पर मुकुट या साफा बंधा होता है जो टेसू के
राजा होने का संकेत करता है. ऐसी किंवदंती है कि टेसू महाभारत काल के बब्रुवाहन का
प्रतीक है जिसे मरणोपरांत शमी वृक्ष पर रखे अपने सिर के द्वारा महाभारत युद्ध देखने
का वरदान मिला हुआ था. बाँस की तीन खपच्चियों का ढाँचा उसी शमी वृक्ष का और सिर बब्रुवाहन
का प्रतीक समझा जाता है.
टेसू
के रूप में सजे पुतले को लेकर युवा घर-घर, बाजार-बाजार
जाते हैं और गीत गाकर उसके बदले में अनाज या कुछ धन की माँग करते हैं. इनके द्वारा
गाये गीत के माध्यम से पता चलता है कि टेसू वीर योद्धा था. “टेसू आये बानवीर, हाथ लिए सोने का तीर. एक तीर से मार
दिया, राजा से व्यवहार किया” गाते हुए लड़के शरद पूर्णिमा की रात्रि
तक कुछ न कुछ माँगते/एकत्र करते रहते हैं. बालकों द्वारा बड़े ही विनोदात्मक तरीके से
गीतों को गया जाता है जिससे उनके इस उत्सव में एक तरह की रोचकता बनी रहती है. कई बार
तो लड़के आशु कवित्व के रूप में कुछ भी उलटे-पुल्टे शब्दों को जोड़कर गायन करते रहते
हैं. किसी घर, दुकान आदि से कुछ भी न मिलने पर इनके द्वारा “टेसू अगड़ करें, टेसू बगड़ करें. टेसू लैई के टरें”
या फिर “टेसू मेरा यहीं खड़ा, खाने को मांगे दही-बड़ा. दही-बड़ा में पहिया, टेसू मांगे
दस रुपईया” आदि गाकर मनोरंजक रूप में कुछ न कुछ प्राप्त
कर लिया जाता है. बाद में शरद पूर्णिमा की रात को इन्हीं लड़कों द्वारा बड़ी ही धूमधाम
से टेसू की बारात निकाली जाती है.
झिंझिया
–
यह
उत्सव बुन्देलखण्ड की किशोरियों द्वारा मनाया जाता है. ये भी आश्विन माह में मनाया
जाने वाला उत्सव है. इसमें मिट्टी के छोटे से घड़े में अनेक छेद होते हैं. इस मटकी की
में कुछ अनाज रखकर उसमें जलता हुआ दीपक रख दिया जाता है. छेदों से बाहर निकलती दीपक
की रौशनी अत्यंत मनमोहक लगती है. बालिकाएँ इस जगमगाती मटकी को अपने सिर पर रखकर समूह
में घर-घर जाकर नेग स्वरूप कुछ न कुछ माँगती हैं. ये किशोरियाँ भी झिंझिया गीत गाती
हैं, नृत्य करती हैं और ये भी शरद पूर्णिमा को संचित
धन से झिंझिया का विवाह टेसू से संपन्न करवाती हैं.
शरद
पूर्णिमा की रात्रि को टेसू-झिंझिया विवाह के समय बालिकाएँ सामूहिक रूप से नृत्य करती
हैं. इस नृत्य की प्रकृति बहुत कुछ गुजरात के गरबा नृत्य के जैसी होती है. झिंझिया-नृत्य
में बालिकाएँ गोलाकार खड़ी हो जाती हैं और केंद्र में एक बालिका नृत्य करती है. वृत्ताकार
खड़ी बालिकाएँ तालियों की थाप के द्वारा नृत्य को गति प्रदान करती हैं. इसमें सभी बालिकाओं
को बारी-बारी से एक-एक करके केंद्र में आकर नृत्य करना होता है. इस नृत्य की विशेष
बात ये होती है कि केंद्र में नृत्य करती बालिका अपने सिर पर रखी हुई झिंझिया का संतुलन
बनाये रहती है. यह नृत्य टेसू-झिंझिया विवाह के समय बालिकाओं में प्रसन्नता को दर्शाता
है.
टेसू-झिंझिया
विवाह से एक किंवदंती और भी जुड़ी हुई है कि सुआटा नामक एक राक्षस कुंवारी कन्याओं को
परेशान करता था, उनका अपहरण कर लेता था और जबरन अपनी पूजा करवाता
था. उसी राक्षस ने झिंझिया नामक राजकुमारी को भी बंदी बना लिया था. टेसू नामक राजकुमार
ने शरद पूर्णिमा को ही सुआटा राक्षस का वध करके झिंझिया को मुक्त करवाया तथा उससे विवाह
रचाया था. बुन्देलखण्ड में बालिकाएँ किसी दीवार पर गोबर से सुआटा राक्षस की आकृति बनाती
हैं जिसका वध टेसू द्वारा किया जाता है और तत्पश्चात टेसू और झिंझिया का विवाह संपन्न
होता है.
आधुनिकता
के इस दौर में आज भले ही इस उत्सव को व्यापकता से न मनाया जा रहा हो किन्तु बुन्देलखण्ड
की आंचलिकता में अभी भी इसके प्रति उत्साह देखने को मिलता है. छोटे-छोटे कस्बों,
गाँवों में युवकों-युवतियों में इसके प्रति रुझान देखने को मिलता है.
इस कारण ही लुप्त हो चुके अनेक पर्वों, त्योहारों के मध्य टेसू-झिंझिया
का विवाह आज भी अपने आपको जीवित रखे हुए है. लोक-कलाओं, लोक-पर्वों,
लोक-उत्सवों, लोक-साहित्य, लोक-गीतों के सम्वर्धन के लिए आवश्यक है कि लुप्त होती लोक-कलाओं का,
लोक-पर्वों का, लोक-उत्सवों का, लोक-साहित्य का, लोक-गीतों का संरक्षण किया जाये. उनको
लोकप्रियता प्रदान की जाये.
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