हम सब मिलकर फिर जलाएंगे रावण के पुतले
को. हम सब फिर एक-दूसरे के साथ शुभकामनाओं का आदान-प्रदान करेंगे. बुराई पर अच्छाई
की विजय का प्रतीक बताकर सभी लोग प्रसन्नता में विजयादशमी पर्व को संपन्न करेंगे.
त्योहारों, पर्वों की विभिन्नता के बीच राष्ट्रीय एकता का सन्देश देता हमारा समाज
एक और पर्व को हर्षोल्लास से मनाये जाने के बाद अपने पुराने ढर्रे पर वापस लौट
आएगा. क्या एक पल को भी इस पर विचार किया है कि साल-दर-साल विजयादशमी पर रावण का पुतला
फूँकने के बाद भी समाज से न तो बुराई दूर हो सकी और न ही असत्य को हराया जा सका है,
क्यों? प्रतिवर्ष सांकेतिक रूप से बुराई के प्रतीक रावण को मारकर क्या वाकई समाज
में अच्छाई का प्रतिपादन किया जा रहा है? क्या शुभकामनाओं का आदान-प्रदान करते समय
किसी ने भी एक पल को समाज से न सही खुद अपने भीतर से बुराई को दूर करने का संकल्प
लिया? समाज में सांकेतिक रूप से सन्देश देने के लिए प्रतिवर्ष बुराई, अत्याचार के प्रतीक रावण
को सत्य और न्याय के प्रतीक राम के हाथों मरवाया जाता है इसके बाद भी समाज में असत्य,
हिंसा, अत्याचार, बुराई आनुपातिक
रूप से बढ़ती क्यों दिखाई दे रही है? शायद ऐसा हममें से कोई भी नहीं करता होगा और
शायद ऐसा करने का प्रयास भी नहीं किया होगा.
देखा जाये तो विजयादशमी का पावन और
महान सन्देश देने वाला पर्व आज सिर्फ सांकेतिक पर्व बनकर रह गया है. इस पावन पर्व पर
इंसानी बस्तियों में छद्म रावण को, छद्म अत्याचार को समाप्त करके सभी लोग अपने कर्तव्यों
की इतिश्री कर लेते हैं. आज आवश्यकता रावण के पुतले को फूँकने की सांकेतिकता से साथ-साथ
व्यावहारिक रूप में अपने भीतर बैठे अनेकानेक सिरों वाले रावण को जलाने की है. दरअसल
समाज व्यक्तियों का समुच्चय है. व्यक्तियों के बिना समाज का कोई आधार है ही नहीं. समाज
की समस्त अच्छाइयाँ-बुराइयाँ उसके नागरिकों पर ही निर्भर करती हैं. इसके बाद भी नागरिकों
में समाज के प्रति कर्तव्य-बोध जागृत नहीं हो पा रहा है. समाज के प्रति, समाज की इकाइयों के प्रति, समाज के विभिन्न विषयों के
प्रति नागरिक-बोध लगातार समाप्त होता जा रहा है. इसी के चलते समाज में विसंगतियाँ तेजी
से बढ़ती जा रही हैं. विजयादशमी के पावन पर्व के मनाये जाने के बाद भी समाज से बुराइयों
को दूर न कर पाने के पीछे इंसानों की यही सोच प्रभावी भूमिका निभाती है कि वो खुद समाज
के लिए क्या सोचता है. आज समाज में विसंगतियों का आलम ये है कि नित्य-प्रति एक-दो नहीं
सैकड़ों घटनाएँ हमारे सामने आती हैं जो समाज की विसंगतियों को दृष्टिगत करती हैं.
यह सुनने-पढने में बुरा लग सकता है मगर
सत्यता यही है कि इसी इन्सान में कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में एक रावण उपस्थित
रहता है. इसका मूल कारण ये है कि प्रत्येक इन्सान की मूल प्रवृत्ति पाशविक है. उसे
परिवार में, समाज में, संस्थानों में विभिन्न तरीके से स्नेह,
प्रेम, सौहार्द्र, भाईचारा
आदि-आदि सिखाया जाता है जबकि हिंसा, अत्याचार, अनाचार, बुराई आदि कहीं, किसी भी
रूप में सिखाये नहीं जाते हैं. सीधी सी बात है कि ये सब दुर्गुण उसके भीतर जन्म के
साथ ही समाहित रहते हैं जो वातावरण, देशकाल, परिस्थिति के अनुसार अपना विस्तार कर लेते हैं. यही कारण है कि इन्सान को इन्सान
बनाये रखने के जतन कई तरह से लगातार किये जाते रहते हैं, इसके
बाद भी वो मौका पड़ते ही अपना पाशविक रूप दिखा ही देता है. कभी परिवार के साथ विद्रोह
करके, कभी समाज में उपद्रव करके. कभी अपने सहयोगियों के साथ दुर्व्यवहार
करके तो कभी किसी अनजान के साथ धोखाधड़ी करके. यहाँ मंतव्य यह सिद्ध करने का कतई नहीं
है कि सभी इन्सान इसी मूल रूप में समाज में विचरण करते रहते हैं वरन ये दर्शाने का
है कि बहुतायत इंसानों की मूल फितरत इसी तरह की रहती है.
इन्सान की इसी मूल चारित्रिक विशेषताओं
या कहें कि दुर्गुणों के कारण ही समाज में महिलाओं के साथ छेड़खानी की, बच्चियों के साथ दुराचार
की, बुजुर्गों के साथ अत्याचार की, वरिष्ठजनों
के साथ अमानवीयता की घटनाएँ लगातार सामने आ रही हैं. जरा-जरा सी बात पर धैर्य खोकर
एक-दूसरे के साथ हाथापाई कर बैठना, अनावश्यक सी बात पर हत्या
जैसे जघन्य अपराध का हो जाना, सामने वाले को नीचा दिखाने के लिए
उसके परिजनों के साथ दुर्व्यवहार कर बैठना, स्वार्थ में लिप्त
होकर किसी अन्य की संपत्ति पर कब्ज़ा कर लेना आदि इसी का दुष्परिणाम है. ये सब इंसानों
के भीतर बसे रावण के चलते है है जो अक्सर अपनी दुष्प्रवृतियों के कारण जन्म ले लेता
है. अपनी अतृप्त लालसाओं को पूरा करने के लिए गलत रास्तों पर चलने को धकेलता है. यही
वो अंदरूनी रावण है जो अकारण किसी और से बदला लेने की कोशिश में लगा रहता है. इस रावण
के चलते ही समाज में हिंसा, अत्याचार, अनाचार,
अविश्वास का माहौल बना हुआ है. अविश्वास इस कदर कि एक व्यक्ति को दूसरे
व्यक्ति से भय लगने लगा है. अविश्वास इस कदर कि आपसी रिश्तों में संदिग्ध वातावरण पनपने
लगा है.
सोचिये, ऐसे में आखिर क्या एक दिन रावण
के सांकेतिक पुतले को मारकर सांकेतिक रूप में ही बुराई को मारने का काम कर लेंगे? हम में से शायद कोई नहीं
चाहता होगा कि हमारे समाज में, हमारे परिवार में अत्याचार,
अनाचार बढ़े. इसके बाद भी ये सबकुछ हमारे बीच हो रहा है, हमारे परिवार में हो रहा है, हमारे समाज में हो रहा है.
हमारी ही बेटियों के साथ दुराचार हो रहा है. हमारी ही बेटियों को गर्भ में मारा जा
रहा है. हमारी ही बेटियों को दहेज़ के नाम पर मारा जा रहा है. हमारे ही अपनों की संपत्ति
को कब्जाया जा रहा है. हमारे ही किसी अपने की हत्या की जा रही है. हमारे ही किसी अपने
का अपहरण किया जा रहा है. और करने वाले भी कहीं न कहीं हम सब हैं, हमारे अपने हैं, हम में से ही कोई हमारा है. ऐसे में
बेहतर हो कि हम लोग रावण के बाहरी पुतले को मारने के साथ-साथ आंतरिक रावण को भी मारने
का काम करें. न सही एक दिन में, एक बार में मगर समय-समय पर नियमित
अन्तराल में अपने अन्दर के रावण की एक-एक बुराई को समाप्त करते रहे तो वह दिन दूर नहीं
होगा जबकि हमें बाहरी रावण को मारने की जरूरत पड़ेगी. तब हम वास्तविक समाज का निर्माण
कर सकेंगे, वास्तविक इन्सान का निर्माण कर सकेंगे, वास्तविक रामराज्य की संकल्पना स्थापित कर सकेंगे.
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 94वीं पुण्यतिथि : कादम्बिनी गांगुली और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंबहुत सार्गर्भित लेख. हरइंसान के अंदर ही राम और रावण है.कभी राम हावी होता है कभी रावण. हमे अपने भीतर के रावण मिटाना होगा. सादर
जवाब देंहटाएंसार्थक लेखन..हमें अपने भीतर की बुराइयों को समाप्त करना होगा तभी असली विजयादशमी मनेगी.
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