रोडवेज बस से कालपी अपने चाचा-चाची के पास जाना हो रहा था. बरसात
का मौसम था. तब पानी भी आज के जैसे छिटपुट नहीं बल्कि खूब जमकर बरसता था. इधर बस ने
उरई छोड़ा ही है कि बादलों ने अपनी छटा बिखेरी. खूब झमाझम पानी. बस की खिड़कियाँ बंद
कर दी गईं.
तेज बारिश के चलते कुछ बूँदें अन्दर घुस आने में सफल हो जा रही
थीं. उनके चलते अपनी तरह का ही आनंद आ रहा था. तभी ये आनंद ऊपर से आता मालूम हुआ. ऊपर
देखा तो बस की छत से एक-दो बूँद पानी टपक रहा है.
कुछ देर तक तो टपकती बूंदों में बड़ा अच्छा लगा मगर कुछ देर में
उनके गिरने की गति बढ़ गई. हम और हमारा छोटा भाई, उस समय चार-पांच साल वाली अवस्था में होंगे,
उन टपकती बूंदों से भीगने लगे तो हमको वहाँ
से उठाकर दूसरी सीट पर बिठा दिया गया. कुछ देर में वहां से भी पानी गिरने लगा.
बाहर पानी लगातार तेज होता जा रहा था. बस की जंग लगी छत में
पानी का भरना बराबर हो रहा था. जिसका परिणाम ये हुआ कि जगह-जगह से पानी बुरी तरह से
अन्दर टपकने लगा. कुछ लोग जो इस मौसम की मार को समझते थे वे अपने साथ छाता लेकर चल
रहे थे. आनन-फानन उन दो-चार लोगों ने अपने-अपने छाते खोल कर बस के बच्चों को भीगने
से बचाया.
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