25 दिसंबर 2016

जातिगत राजनीति में उलझा प्रदेश

चुनावी सुगंध का एहसास राजनैतिक दलों को कई माह पहले से होने लगता है. इसी सुगंध में उनके द्वारा लगातार ऐसे काम किये जाते हैं जो जनता के हितार्थ भी होते हैं तो दूसरी तरफ दलगत राजनीति को बढ़ावा देने वाले भी होते हैं. प्रथम दृष्टया जनहित से सम्बंधित दिखाई देने वाले इन कार्यों के पीछे मूल भावना स्व-हितकारी ही बनी होती है. इसी कारण से बहुतेरे जनहित से सम्बंधित कार्यों का निष्पादन ऐन चुनावों के आसपास ही किया जाता है. बड़े-बड़े लुभावने वादों का भी प्रस्तुतीकरण इसी समय होता है. कुछ ऐसा ही वर्तमान उत्तर प्रदेश राज्य सरकार ने किया है, पिछड़े वर्ग से सत्रह जातियों को अति-पिछड़े के नाम पर अनुसूचित जातियों में शामिल करके. सरकार द्वारा इस तरह से प्रदर्शित किया जा रहा है मानो उन सत्रह जातियों के अनुसूचित जाति वर्ग में समाहित किये जाने से उनकी सभी समस्याओं का अंत हो जायेगा. ऐसा लग रहा है जैसे कि वे सब अब तमाम सरकारी सुविधाओं का लाभ लेकर संपन्न हो जाएगी. इसके उलट एक सवाल खुद उन्हीं सत्रह जातियों को सरकार से करना चाहिए कि आखिर इतने वर्षों तक उन्हें पिछड़े वर्ग की सुविधाओं से वंचित क्यों रखा गया? किसने उन्हें आगे बढ़ने से रोका? किसने उनको पिछड़े वर्ग में अति-पिछड़ा बनाये रखा? ये ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब किसी भी सरकार के पास नहीं. 



असल में हो ये रहा है कि वर्तमान में आरक्षण को राजनैतिक हथियार के रूप में, एक रणनीति के रूप में उपयोग किया जा रहा है जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए. वंचित वर्ग को लाभान्वित करने के लिए की गई व्यवस्था स्वार्थ-पूर्ति का हथियार बन कर रह गई है. आरक्षण का पीढ़ी-दर-पीढ़ी लाभ उठाते आये लोग वंचित वर्गों के भीतर एक तरह के मठाधीश, कुलीन वर्ग बनकर रह गए हैं. इस नवोन्मेषी वर्ग ने आरक्षण का लाभ अपने से नीचे वर्ग तक न पहुँचने के कुप्रयास भी किये. इस सत्य को भले ही स्वीकार न किया जाए पर ये सौ फ़ीसदी सत्य है कि वर्तमान में आरक्षण कुछ विशेष जातियों, विशेष परिवारों, विशेष राजनैतिक दलों की बपौती सा बनकर रह गया है. शिक्षा, नौकरी, पदोन्नति, राजनीति आदि जिन-जिन क्षेत्रों में आरक्षण व्यवस्था लागू है वहां आसानी से देखने को मिलता है कि कैसे पीढ़ियों से आरक्षण उन्हीं के इर्द-गिर्द घूम रहा है. आरक्षण लाभान्वित संपन्न परिवारों को जब भी आरक्षण की परिधि से बाहर निकल जाने का खतरा दिखा तब-तब किसी न किसी राजनैतिक, प्रशासनिक जुगत से क्रीमीलेयर नामक व्यवस्था को अपने पक्ष में करवाकर आरक्षण को अपने तक ही सीमित कर लिया.


वर्तमान निर्णय का लाभ कितना मिलेगा, कितना नहीं ये तो भविष्य की बात है मगर जो बात सामने दिख रही है वो ये कि इसका सीधा सा लाभ पिछड़े वर्ग की शेष जातियों को ही मिलेगा, आरक्षण सम्बन्धी सुविधाओं के लिए. स्पष्ट है कि आरक्षण का लाभ लेने सम्बन्धी मुद्दे पर पिछड़े वर्ग के खाते से सत्रह जातियों की कमी हो गई है, जबकि आरक्षण का प्रतिशत ज्यों का त्यों बना हुआ है. इसके उलट अनुसूचित जातियों को आरक्षण का लाभ लेने के लिए अपने पूर्व-घोषित प्रतिशत में अब और भी जद्दोजहद करनी होगी. अब यदि आरक्षण समर्थक इस व्यवस्था का लाभ समस्त वंचित वर्ग तक पहुँचाना चाहते हैं वे स्वयं इस बात का विरोध करें कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता आरक्षण समाप्त किया जाए. आरक्षण के सहारे शिक्षा, सुविधा, धन से संपन्न हो चुके परिवार की अगली पीढ़ी को आरक्षण का लाभ न दिया जाए (जब तक कि वो वाकई वंचित की अवस्था में न हो). दरअसल आरक्षण संपन्न वर्ग द्वारा जारी अवरोध के साथ-साथ राजनैतिक दलों द्वारा उठाये जाने वाले विभेदकारी क़दमों से भी आरक्षण का लाभ समस्त वंचित वर्ग तक नहीं पहुँच सका है. इस बात से किसी को इंकार नहीं होगा कि (उत्तर प्रदेश के सन्दर्भ में) अन्य पिछड़ा वर्ग में और अनुसूचित जाति वर्ग में आरक्षण का लाभ (सम्पूर्ण लाभ) किन-किन एक-दो जाति विशेष को ही उपलब्ध है. जातिगत राजनीति के सहारे आगे आने वाले और आरक्षण का समर्थन करने वाले विशेष राजनैतिक दल खुद में अपने वर्ग की अन्य दूसरी जातियों के लाभान्वित होने की दिशा में काम नहीं कर रहे हैं. इनका एकमात्र उद्देश्य आरक्षण के सहारे अपनी-अपनी जातियों के वोट-बैंक से सत्ता प्राप्त करने का रहता है. जबतक आरक्षण को उचित रूप में लागू करने की मंशा से काम नहीं किया जायेगा तब तक समाज विभेदकारी स्थिति से बाहर नहीं निकल पायेगा. आरक्षण जैसी संवैधानिक व्यवस्था के गलत उपयोग से उत्पन्न होता सामाजिक विभेद, वर्ग विभेद उस विभेदकारी स्थिति से ज्यादा घातक है जिसे दूर करने के लिए आरक्षण को लागू किया गया.

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