जम्मू-कश्मीर की वर्तमान स्थिति को देखकर
लगता नहीं कि वहाँ की जनता ने कुछ दिनों पहले अपना जनाधार लोकतान्त्रिक व्यवस्था को
बनाये रखने के लिए दिया था. तत्कालीन अलगाववादी ताकतों और आतंकी धमकियों को नजरअंदाज
करके वहाँ की जनता ने अपने मताधिकार का प्रयोग कर सरकार गठन में अपनी हिस्सेदारी की.
चुनाव नतीजों से लगा जैसे कि जम्मू-कश्मीर की जनता ने मोदी जी के विकास और मुफ़्ती जी
के अटल फ़ॉर्मूले को अपनाने का मन बनाया है. शायद ये जनाधार का सम्मान ही कहा जायेगा
या फिर राजनैतिक मजबूरी कि एक दूसरे की विरोधी होने के बाद भी पीडीपी और भाजपा ने मिलजुल
कर सरकार बनाई. आरंभिक दौर में लग रहा था कि जैसे सब सही चलने वाला है मगर मुफ़्ती जी
के देहांत के बाद महबूबा मुफ़्ती के अड़ियल रुख से बात बिगड़ती सी महसूस हुई. बहरहाल जम्मू-कश्मीर
में पुनः सरकार की वापसी हुई तो लगा कि शायद कुछ सकारात्मक बदलाव आयेंगे. भाजपा जहाँ
मोदी जी के विकास की चर्चा करती दिखी वहीं महबूबा ने बार-बार अटल फ़ॉर्मूले का राग अलापा.
इसके बाद भी एकाएक कुछ घटनाओं से विकास की, फ़ॉर्मूले की आशा को धूमिल सा कर दिया.
पहले शैक्षणिक संस्थान में तिरंगा फहराने, भारत माता
की जय सहित राष्ट्रवादी नारे लगने पर विवाद पैदा होना. उसके बाद अखिल भारतीय विद्यार्थी
परिषद् की इकाई को प्रतिबंधित करना भी विवादों को जन्म देता लगा. इसी तरह के छोटे-छोटे
विवादों, मान-मनौवल के बीच एक आतंकी के मारे जाने की घटना ने शांति, भाईचारे, विकास जैसी
अवधारणा के ढाँचे को नेस्तनाबूत करके धर दिया. एक आतंकी के मारे जाने के बाद जिस तरह
से वहाँ के नागरिकों ने आक्रामक रुख दिखाया, जिस तरह से भारतीय सेना को अपना निशाना बनाया वो चिंताजनक है.
इसके साथ-साथ सबसे ज्यादा परेशान करने वाली बात ये रही कि जम्मू-कश्मीर से इतर राज्यों
से नेताओं के बोल राष्ट्रहित वाले नहीं कहे गए. अपने-अपने वोट-बैंक को साधने की मंशा
के अंतर्गत भारतीय सेना की कार्यवाही को गलत सिद्ध करने का काम किया जाता रहा. आक्रामक
और हिंसक भीड़ पर पैलेट गन के उपयोग को भी कानूनी चुनौती दी जाने लगी. ऐसे लोगों को
हताहत होते सैनिकों की चिंता नहीं थी वरन चिंता उनकी थी, जिनके हाथों
में पत्थर थे, लाठी-डंडे थे. ऐसा नहीं है कि कश्मीर के हालात कोई पहली
बार ख़राब हुए हों. वहाँ के हालात पहले भी खराब होते रहे हैं. वहाँ के वाशिंदों को भागने
को मजबूर होना पड़ा. पाकिस्तान के झंडे लहराते नजर आते हैं. भारतीय सेना को हमलों का
दंश झेलना पड़ता है. सीमापार से चलता प्रायोजित आतंकवाद अपनी जड़ें मजबूत करने में लगा
हुआ है. आतंकी की मौत पर जनाधार जुटता दिखाई देता है. ऐसे हालातों के बीच पाकिस्तान
ने अवसर का लाभ उठाते हुए आतंकी बुरहान को शहीद का दर्जा देकर मामले को और हवा दे दी.
ऐसी स्थिति के आने के बाद अब भारतीय सेना पर, सैनिकों पर पत्थर फेंकने वालों में बच्चे और बहुसंख्यक युवा
तो शामिल हुआ ही,
महिलाओं ने भी सामने आना शुरू कर दिया.
केंद्र सरकार की सार्थक पहल के बीच गृहमंत्री
ने दो बार संकटग्रस्त क्षेत्र का दौरा किया. जम्मू-कश्मीर के राजनैतिक लोगों ने भी
आकर प्रधानमंत्री से भेंट कर हालातों पर नियंत्रण लगाने की माँग की. अब महबूबा मुफ़्ती
भी वहाँ के लोगों को उन्हीं की भाषा में समझाती दिख रही हैं. देखा जाये तो ऐसा अचानक
से नहीं हुआ है. मोदी जी द्वारा लालकिले से बलूचिस्तान की आवाज़ उठाने का परिणाम ये
हुआ कि न केवल बलूचिस्तान से वरन सिंध से भी अलगाववादी आवाजें आनी शुरू हो गईं हैं.
बदलते हालातों में ईंट का जवाब पत्थर से देने की रणनीति के अंतर्गत बलूचिस्तान की माँग
ने कहीं न कहीं पाकिस्तानियों को, अलगाववादियों को परेशान तो किया ही है. इस बदलती स्थिति में
मोदी जी की आंशिक सी परिवर्तित विदेश नीति से ही पाकिस्तान में हलचल मच गयी. महबूबा
मुफ़्ती अब पाकिस्तान को चेताने का काम करती हुईं उसे संयम से रहने की सलाह दे रही हैं.
कश्मीर के युवकों को न बरगलाने का सन्देश प्रसारित कर रही हैं. कश्मीर की पत्थरबाज़
भीड़ पर गुस्सा व्यक्त करती हुई कह रही हैं कि वे क्या दूध बाँटने गए थे. स्पष्ट है
कि पाकिस्तान अभी तक जिस तरह के हालात जम्मू-कश्मीर में बनाकर उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर
पर विवादित बनाकर भारत को अस्थिर रखने का काम करता था, कुछ वैसा
ही अब उसे भी सहना पड़ रहा है. पाकिस्तानी हुक्मरान भली-भांति समझते हैं कि आंतरिक रूप
से आतंकियों के चंगुल में फँसी पाकिस्तानी व्यवस्था में यदि बलूचिस्तान, सिंध की
तरफ से आज़ादी की माँग पुरजोर तरीके से उठने लगी और भारतीय आवाज़ उनके साथ मिल गई तो
उनके लिए नियंत्रण बनाये रख पाना संभव नहीं होगा. भारत की तरफ से चली गई इस चाल का
अंतिम परिणाम क्या होगा,
ये तो भविष्य बताएगा किन्तु आरंभिक तौर पर लग रहा है कि इससे
शायद जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तानी अलगाववादी मंसूबों पर अंकुश लग सके.
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