एक फ़िल्मी गीत ‘ज़िन्दगी
तो बेवफ़ा है एक दिन ठुकराएगी, मौत महबूबा है अपने साथ लेकर जाएगी’
ने ज़िन्दगी और मौत को लेकर जबरदस्त दर्शन पेला है. अपने साथ चलती ज़िन्दगी की कद्र
नहीं और महबूबा के लिए परेशान हैं. उसके साथ जाने की आतुरता है. ये और बात है कि
इस दर्शन को मानने वालों में से किसी ने भी अपने आप आगे कदम बढ़ाकर अपनी महबूबा का
हाथ नहीं थामा है. यहाँ आकर ज़िन्दगी और मौत की हमारी अपनी ही एक अलग थ्योरी है. हाँ,
तो मौत भले ही महबूबा हो किन्तु ज़िन्दगी पत्नी के समान या कहें कि जीवनसाथी के
समान है. जो आपको मिला है, तो आपके साथ भी है. आपके अच्छे-बुरे में आपके साथ है.
आपसे लड़ता-झगड़ता भी है. आपसे प्यार-दुलार भी करता है. ज़िन्दगी भी कुछ ऐसी है. आपके
साथ है, अच्छे में, बुरे में, आपके साथ लड़ती-झगड़ती भी है. आपसे प्यार-दुलार भी
करती है. कहने का आशय कि आपको अच्छे दिन भी दिखाती है, आपको बुरे दिन भी दिखाती
है.
अब जैसे कहा जाता
है न कि दूसरे की थाली का भात बहुत पसंद आता है, ठीक इसी तरह अपने साथ रहती
ज़िन्दगी पसंद नहीं आती. सो एक अदद मौतरुपी महबूबा खोज लाये, ज़िन्दगी में थ्रिल के
लिए. खुद को ये समझाने के लिए कि ज़िन्दगी रुपी जीवनसाथी के अलावा भी हमारे पास एक
महबूबा है. खुद को मौज-मस्ती के चरम तक ले जाने के लिए कि हमारे पास भी महबूबा है.
आराम से सपनों में चैटिंग करके, नींद में व्हाट्सएप्प करके, अचेतन में मोबाइल घुमाकर अपनी महबूबा की तस्वीर
बनाकर मौज-मस्ती कर लिया करते हैं. कुछ अपनी महबूबा को सड़कों पर खोजते फिरते हैं.
कुछ तेज रफ़्तार बाइक के द्वारा, कुछ बाइक के स्टंट के द्वारा, कुछ हैरतअंगेज
करतबों के द्वारा आये दिन महबूबा को बुलाते रहते हैं. इसके बाद भी इनमें से किसी
ने चाहकर भी अपनी महबूबा का आलिंगन नहीं किया और न ही करना चाहा. हाँ, लोगों के
सामने अपनी महबूबा की तारीफ के लिए, खुद को बहुत रोमांटिक दिखाने के लिए वे
बात-बात में मौत को चैलेंज करते रहते हैं. ‘कल मरते हों तो आज मर जाएँ’, ‘मौत
हमारे लिए बाँए हाथ का खेल है’, ‘ज़िन्दगी से ऊब गए, अब मौत की नींद सोना है’
आदि-आदि जैसे कथनों से सिर्फ बातों के बताशे ही फोड़े जाते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि
मौतरुपी महबूबा से खेलने में और उसके साथ हँसते-हँसते चल देने में बहुत बड़ा अंतर
है. बहुतों को देखा है जबकि इस महबूबा के आने की आहट हुई तो सकपका गए. जो भी सामने
मिला उसी के हाथ-पैर जोड़कर मौतरुपी महबूबा से मुक्ति पाने की कामना करने लगे. उस
समय उनको मौत महबूबा नहीं वरन किसी चुड़ैल जैसी लगने लगी. ज़िन्दगी तब बेवफ़ा नहीं
वरन जीवनसाथी सी लगने लगी. उनकी हालत ठीक वैसे ही होने लगती है जैसे कि पत्नी के
सामने महबूबा का राज खुल जाने पर होती है. एक झटके में सारी फिलोसोफी हवा हो जाती
है. मौत को सामने देख सब पानी माँगने लगते हैं. एक पल में महबूबा और चुड़ैल का अंतर
दिखाई देने लगता है. सामाजिक दायित्व, कर्तव्य, परिवार, माता-पिता, भाई-बहिन,
जीवनसाथी, बच्चे, दोस्त, रिश्तेदार दिखाई देने लगते हैं. महबूबा के साथ चलने में असमर्थता
दिखने लगती है. बड़े से बड़े चिकित्सालय के साथ-साथ गली-कूचे का तांत्रिक असरकारी
नजर आने लगता है.
ऐसे ही विषम मोड़
पर ज़िन्दगी का मोल समझ में आता है. ऐसे ही संकट के समय महबूबा के साथ आलिंगनबद्ध
होने की असल परीक्षा होती है. संकट का एक पल सामने आता है तो मौत जैसी महबूबा से अधिक अहमियत ज़िन्दगी
सरीखे जीवनसाथी की समझ आती है. समझ आता है
कि ज़िन्दगी बेवफा नहीं वरन वही है जो साथ चल रही है. मौतरुपी महबूबा तो सिर्फ
परिवार बिगाड़ने आई है. अपनों से अपने को दूर करने आई है. अपनों की आँखों में आंसू देने आई है. फिलोसोफी अलग
चीज है मगर जब सामने परिवार हो, अपने हों तो कितना भी दर्शन पेलो, उस समय मौत
महबूबा नहीं चुड़ैल लगती है, डायन लगती है. सच तो ये है कि ज़िन्दगी ही अंतिम सत्य
है, यदि वही बेवफ़ा है तो वही महबूबा भी है. बस एक बार महबूबा की तरह उससे रोमांस
करके तो देखो, मौतरुपी महबूबा को भूलकर ज़िन्दगीरुपी महबूबा के आलिंगन में बंधे
रहोगे. उसी के प्रेम में निमग्न रहोगे.
(चित्र लेखक द्वारा निकाला गया है)
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