21 मार्च 2016

मारो और बचाओ

तरक्की पसंद इंसान के चेतना के द्वार विगत कुछ वर्षों से कुछ अधिक ही खुल रहे हैं. तकनीक का प्रयोग करते हुए जहाँ वो मानवीय रिश्तों के प्रति कुछ हद तक असंवेदनशील हुआ है तो जीव-जंतुओं, पशु-पक्षियों के प्रति कुछ ज्यादा ही संवेदित हुआ है. यहाँ ये समझना थोड़ा मुश्किल ही प्रतीत होता है कि उसकी संवेदनशीलता वास्तविक है अथवा इसमें भी प्रचार-नाम-यश की भूख छिपी हुई है. कुछ वर्षों पहले बाघ बचाने की मुहिम चली थी और एक-दो वर्षों के तमाम हथकंडे अपनाये जाने के बाद बताया गया कि बाघों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो गई है. आश्चर्य इसका था कि विज्ञापनों, टीवी चैनलों आदि के माध्यम से होते प्रचार से प्रभावित होकर ऐसे-ऐसे लोग, ऐसे-ऐसे क्षेत्रों में बाघ बचाओ मुहिम के लिए निकल पड़े थे, जहाँ बाघों का कभी भी कोई नामोनिशान नहीं था. अब कुछ संवेदित लोग गौरैया बचाने को निकल पड़े हैं. शहरों के बीच से वृक्षों को समाप्त करके कंक्रीट के जंगल खड़े देने वाले लोग, घरों से खुलापन, लॉन का अस्तित्व मिटा देने वाले लोग चिंतातुर हैं कि अब गौरैया उनके घरों में, उनके आँगन में दिखाई नहीं देती. ऐसे लोगों से सवाल महज इतना कि पहले वे लोग ही बताएं कि उनमें से कितने लोगों ने अपने-अपने बहुमंजिला मकानों में आँगन रख छोड़े हैं? गौरैया की चिंता में व्याकुल लोग जरा इस बात पर प्रकाश डालें कि उनमें से कितने फिक्रमंद अपने-अपने घरों की छतों पर नियमित रूप से जाते हैं? गौरैया के घोंसले के लिए चिंता करने वाले अपने दिल पर हाथ रखकर बताएं कि कितने लोग हैं जिन्होंने अपने-अपने घरों के भीतर गौरैया को घोंसला बनाने दिया है?

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गौरैया बचाने के पहले ये समझना आवश्यक है कि गौरैया समाप्त क्यों होने लगी हैं? क्यों उनका घर-आँगन में फुदकना, चहचहाना बंद सा हो गया है? इसको समझने के लिए न तो जीव-जंतु विशेषज्ञ होना आवश्यक है और न ही किसी शास्त्र का विद्वान वरन साधारण सी सामाजिकता का होना आवश्यक है. नितांत साधारण सी बात है कि गौरैया सदैव से स्वच्छ वातावरण में रहना पसंद करती रही है. उसने अपने घोंसले के निर्माण के लिए घरों को, खिड़कियों को, बरामदे के किनारों को, मकान की खाली, अनुपयोगी जगह को प्राथमिकता में रखा है. अब अपने आसपास नजर दौड़ाने पर पता चलता है कि स्वच्छता तो हमने रहने ही नहीं दी है. गाड़ियों के धुँए ने प्रदूषण को बढ़ाया है तो शहर के किनारे बनते-उगते आये छोटे-छोटे कल-कारखानों ने उगलते धुँए ने भी वातावरण को, हवा को जहरीला किया है. ऐसी जहरीली हवा में जहाँ इंसान सांस लेने में कष्ट का अनुभव कर रहा है तो वहां कोमल स्वभाव वाली गौरैया की तकलीफ को सोचा जा सकता है. इसके साथ-साथ कानफोडू शोर के चलते भी गौरैया को मानवीय समाज के साथ अपना समाज विकसित करने में समस्या उत्पन्न हो रही है. शांत माहौल में चहचहाने वाली, फुदकने वाली गौरैया के अस्तित्व के लिए ये शोरगुल नकारात्मक भूमिका निभा रहा है.
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वातावरण की अस्वच्छता, प्रदूषण, शोरगुल आदि के साथ तकनीक के विकास-क्रम में इंसान ने अपना विकास तो किया मगर जीव-जंतुओं के लिए संकट ही पैदा किया है. इस विनाश-क्रम में इंसान ने एक कदम की और वृद्धि की है, जबकि मोबाइल रेडियेशन के चलते भी गौरैया के अस्तित्व पर संकट के बादल गहराने लगे हैं. गौरैया बचाने की मुहिम छेड़ने वालों को भी भली-भांति ये सारे तत्त्व ज्ञात हैं, इसके बाद भी बिना किसी ठोस, सकारात्मक प्रयासों के गौरैया बचाने की मुहिम चलाई जा रही है, गौरैया के लिए मानव-निर्मित घोंसले बनाये जा रहे हैं, छतों पर, मुंडेरों पर गौरैया के लिए दाना-पानी का बंदोवस्त करने के सन्देश छोड़े जा रहे हैं. किसी पक्षी के अस्तित्व की रक्षा के लिए ये बेहतर प्रयास कहे जा सकते हैं मगर तब जबकि इनके पीछे महज प्रचार पाने की लालसा न हो, महज फोटो खिंचवाने की लालसा न हो. यदि वाकई में गौरैया को बचाने के प्रयास करने हैं तो हमें वातावरण को स्वच्छ रखने की कोशिश करनी चाहिए. पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के कदम उठाये जाने चाहिए. मोबाइल रेडियेशन को कम से कम करने का प्रयास करना चाहिए. ऐसे में फिर सवाल, कि क्या वाकई में इंसान ऐसा कर पायेगा? क्या वाकई ऐसा कर पाने की मानसिकता को पैदा कर पायेगा? यदि इंसान अपने वातावरण को, पर्यावरण को, हवा-पानी को, जंगल-जमीन आदि को बचाने के लिए आगे न आया तो गौरैया को चील, गिद्ध, बाज, नीलकंठ, कठफोड़वा, टिटहरी, कौआ आदि की तरह विलुप्त सा करेगा ही साथ ही अपने अस्तित्व को भी विलुप्त करेगा. वैसे भी ‘बेटी बचाओ’ के द्वारा वह अपने अस्तित्व को बचाने की मुहिम में लगा ही हुआ है.
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