वैश्विक परिदृश्य में जिस तरह से
मल्टीनेशनल कंपनियों को बाज़ार की तलाश बराबर रहती है, ठीक उसी तरह से भारतीय
राजनैतिक परिदृश्य में गैर-भाजपाई दलों को और मीडिया को विवादों की तलाश रहती है.
विवादों की चाह इस तीव्रता से होती है कि यदि कोई विवाद मिल भी नहीं रहा है तो ये
लोग किसी न किसी घटना को भी मनमाफिक रंग में रँग कर विवाद को जन्म दे देते हैं.
विवादों को जन्मने की इनकी कला इतनी प्रभावी है कि विगत लगभग दो वर्षों से देश को
विवादों का ऐसा जंगल बना दिया है, जहाँ सिर्फ और सिर्फ काँटे ही काँटे हैं. इंसानी
मौत से लेकर जानवर के घायल होने तक बिना किसी संवेदना के ऐसे लोगों का मंतव्य विवाद
पैदा करना ही होता है. संभवतः ये इंसानी मानसिकता ही है कि वो बहुत जल्दी ही अपनी
समकालीनता से तारतम्य बना लेता है और इसी कारण से वो पुरानी बातों को लगातार
विस्मृत सा करता हुआ वर्तमान में जीता जाता है. यही कारण है कि जब भी कोई नया
विवाद पैदा होता है तो पुराने विवाद की असलियत को जाने समझे बिना लोग मीडिया के,
राजनेताओं के बहकावे में नए विवाद पर चिल्ला-चोट करने लग जाते हैं. बिना आगा-पीछा
सोचे महज विवादों के लिए विवाद को जन्मना और फिर उसी के सहारे सरकार को कोसते रहना
किसी भी रूप में सुखद संकेत नहीं है.
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पूर्व की शनि मंदिर में प्रवेश की
घटना हो, अख़लाक़ की मौत का मामला हो, पुरस्कार वापसी का मसला हो, रोहित की
आत्महत्या हो, जेएनयू का मसला हो सभी में कहीं न कहीं मीडिया का अतिरेक दिखाई
दिया, गैर-भाजपाई राजनैतिक दलों का पूर्वाग्रह दिखा. अपने आपको लोकतंत्र का चौथा
स्तम्भ कहने वाली मीडिया ने समूचे मामलों में एकतरफा रुख बनाये रखा तो गैर-भाजपाई
दलों ने भी विपक्ष की भूमिका की बजाय विवाद-निर्माता की भूमिका निभाई. पूर्व के
विवादों में सरकार की आलोचना करते हुए हमला तेज बना रहा किन्तु सरकार के विरोध में
जनमानस को एकत्र करने का काम इनके द्वारा न हो पाने के कारण मीडिया और गैर-भाजपाई
दलों द्वारा विवादों की खेती लगातार जारी है. इसका कारण ये भी रहा कि जिन-जिन
विवादों को जन्म दिया गया, उनमें साजिश का पर्दाफाश होता रहा और कहीं न कहीं सरकार
की छवि और सशक्त होकर सामने आती रही, साथ ही साजिश करने वालों के चेहरे से नकाब
उतरता रहा. इन साजिशकर्ताओं का मुख्य निशाना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी है, जो
अपने मुख्यमंत्रित्वकाल से ही विवादों के साये में बने रहे हैं और लगातार निर्दोष
होकर सामने आते रहे हैं. इस तरह की स्थितियों ने उनको सशक्तता ही प्रदान की है. अब
जबकि वे प्रधानमंत्री की कुर्सी पर आसीन हैं तो उन्होंने अपने स्वरूप को, देश की
छवि को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सशक्त किया है. विरोधियों द्वारा जिस तरह का
वातावरण लोकसभा चुनाव के पहले बनाया गया था, नरेन्द्र मोदी जी की जिस छवि का
निर्माण किया गया था, वैसा कुछ भी देखने को नहीं मिल रहा है. ऐसे में तमाम
राजनैतिक दलों की तथा मीडिया की बेचैनी को समझा जा सकता है. इसी बेचैनी का परिणाम
सामने आया ‘भारत माता की जय’ और घोड़े शक्तिमान के घायल होने वाले विवाद के रूप
में.
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अब जबकि विवादों पर
विवादों के कैक्टस खड़े करने के बाद भी सरकार के क़दमों को घायल नहीं कर पाए तो फिर
नए विवाद को जन्म दिया गया. इस विवाद की भी भ्रूण हत्या सी हो गई, खुद इन्हीं के
कदमों से. घोड़े शक्तिमान के मामले में जिस तरह से भाजपा विधायक को दोषी बनाया जा रहा
था, वो मामला एक झटके में एक वीडियो के सामने आने से साफ़ हो गया. इसी तरह भारत
माता की जय नहीं बोलूँगा के रूप में विवाद का नया रूप खड़ा करने की साजिश उसी समय
मटियामेट हो गई जबकि देश के अनेकानेक भागों से मुसलमानों ने ‘भारत माता की जय’ के
नारे लगाये. यहाँ सोचने वाली बात ये है कि आखिर अभी ऐसे मुद्दे को उठाने का औचित्य
क्या था? किस संगठन ने, किस व्यक्ति ने भारत माता की जय अथवा किसी और नारे को
लगाये जाने की बात कही थी? बिना किसी बात के, अकारण सरकार को घेरने के लिए लगाये
जाये कँटीले विवाद खुद-ब-खुद समाप्त होते जा रहे हैं. इस तरह के क़दमों से समाज में
मीडिया को लेकर, गैर-भाजपाई दलों के बारे में नकारात्मक माहौल तो बन ही रहा है,
वैश्विक स्तर पर भी देश की छवि, देश के राजनैतिक स्वरूप पर नकारात्मक असर तो हो ही
रहा है. बहरहाल, लगता तो ये है कि ये साजिशकर्ता, विवाद-पसंद लोग तो मानेंगे नहीं
और लगे होंगे किसी नए विवाद को जन्म देने की प्रक्रिया में.
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