विमर्शों के इस दौर में महिलाओं की आज़ादी के नाम पर स्त्री-विमर्श
के बहाने से देह के आसपास घूमते विमर्श को तलाशने का प्रयत्न किया जाने लगा है;
यौन स्वच्छंदता के रूप में आज़ादी की चाहना सामने रखी जाने लगी है. स्त्री को उसकी
यही स्वतंत्रता दिलाने हेतु आन्दोलन शुरू हुये, महिला सशक्तिकरण की राह निर्मित की
गई. नारी मुक्ति आन्दोलन का आरम्भ मुख्यतः ग्रेट ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका
से हुआ. पूँजीवादी देशों में नारी की दशा पुरुषों के मुकाबले दोयम थी. कानून और धर्मशास्त्र
के द्वारा भी पराधीनता की व्यवस्था की गई थी. ऐसे में सन् 1792 में मेरी वोल्सटोनक्राफ्ट ने स्त्रियों के पक्ष में पहला और महत्वपूर्ण दस्तावेज
‘स्त्रियों के अधिकारों का औचित्य साधन’ लिखा. महिलाओं की लगातार सक्रियता से आन्दोलन को अतिवादी रूप मिला, जिसके
चलते सौन्दर्य प्रसाधनों का बहिष्कार होने लगा, सड़कों पर चोलियों
को जलाया जाने लगा, स्त्री-पुरुष प्रतिद्वंद्वी के रूप में आमने
सामने खड़े होने लगे. परिणाम यह हुआ कि स्त्री-पुरुष समलैंगिकता, मुक्त यौनाचार, हत्याओं, आत्महत्याओं
आदि का सिलसिला चल पड़ा. ऐसे अतिवाद का परिणाम यह हुआ कि नारी मुक्ति का आन्दोलन अपनी
मंजिल से पूर्व ही राह भटक गया.
भारतीय नारी सदियों से दासता से मुक्त होने की राह देख रही थी
किन्तु यहाँ इसके शुरूआती दौर को पुरुषों ने ही सँभाला. ईश्वरचन्द विद्यासागर द्वारा
गठित ‘बेहरामजी माला-बारी संघ’ की ओर से विधवा विवाह करवाये जाने और बाल विवाह पर रोक लगाये जाने की माँग
के साथ अभियान का आरम्भ हुआ. सन् 1866 में राजा राममोहन राय ने
सती प्रथा के विरुद्ध आवाज उठाकर नारी मुक्ति की दिशा में प्रयास किया. ब्रह्म समाज
ने भी नारी मुक्ति आन्दोलन को दिशा दी. इसके बाद भी भारतीय नारी सशक्तीकरण अपनी स्वीकार्यता
की माँग कर रहा है. इसके पीछे मूल कारण ये रहा कि नारी सशक्तीकरण के नाम पर महिलाओं
द्वारा अपनी कुंठा को बाहर निकाला जाने लगा और इसे आत्मविश्वास का नाम देकर परिभाषित
किया जाने लगा. नारीवादी संगठनों द्वारा समय-समय पर उठायी जाती आवाजों में यौन वर्जनाओं
के टूटने की ध्वनि सुनायी दी.
महिलाओं द्वारा समय-समय पर स्वतंत्रता की आवाज़ उठाई जाने लगी.
ऐसे में सवाल यह उठता है कि नारी को स्वतन्त्रता किससे चाहिए?
स्वतन्त्रता के नाम पर आधुनिक समझने वाली नारियों ने खुद को उत्पाद के
रूप में स्थापित करवा दिया है, बाजारवाद के चलते वह स्वयं बाज़ार में सज रही है. परिवार,
घर, बच्चों की परवरिश को अपनी गुलामी समझने वाली
नारी को टी0वी0 की सेल्युलाइड चमक तथा पर्दे
की रंगीनियाँ आजादी का सपना तो दिखा सकती है पर वास्तविक आजादी नहीं दिलवा सकती है.
यही कारण है कि अपने उत्पाद को बेचने के लिए निर्माता नग्न महिला को ही पसंद कर
रहा है. नारी सशक्तीकरण के नाम पर नारी की देह को परोसा जा रहा है पर उसे अब इसमें
किसी प्रकार के शोषण अथवा असम्मान की झलक नहीं दिखायी देती है क्योंकि यह सब उसके स्वयं
के द्वारा हो रहा है.
इसमें कोई दोराय नहीं कि महिलाओं ने समय-समय पर अपनी क्षमताओं
को दर्शाकर साबित किया है कि वे पुरुषों से किसी भी मायने में कम नहीं हैं. स्त्री-मुक्ति
का यह आन्दोलन इसी रूप में आगे बढ़ता तो किसी सार्थक मुकाम पर अवश्य पहुँचता किन्तु
विदेशी नारी मुक्ति आन्दोलन की तरह शारीरिक सुख, यौन स्वतन्त्रता के चलते वह भी विकृत हो गया. परिणाम यह हुआ कि अधिकारों,
दायित्वों, कार्यों की माँग करने वाली महिलायें
यौन स्वतन्त्रता की बात करने लगीं. उनका लक्ष्य नारी देह की स्वतन्त्रता हो गया,
यौन स्वतन्त्रता हो गया. इसे नारी सशक्तीकरण की बिडम्बना ही कही जायेगी
कि नारी सशक्तीकरण की समर्थक स्त्री नारी सशक्तीकरण की सफलता इस बात से तय करती है
कि कब पुरुष वेश्यालय बनेंगे? सशक्तीकरण की आड़ लेकर एक स्त्री को पिता, पति, पुत्र शासक के रूप में दिखता है और वह स्वयं को
इनका शोषित समझती है. स्वतंत्रता की चाह रखने वाली ऐसी महिलाओं को समझना होगा कि महिलाओं
को मिलते अधिकार, शिशु प्रजनन सम्बन्धी अधिनियम, परिवार को सीमित रखने का अधिकार, तलाकशुदा स्त्री को
बच्चा पाने का कानूनी अधिकार आदि उनकी स्वछन्द यौन-प्रस्तुति से सम्भव नहीं हुए हैं.
इसके पीछे लगनशील महिलाओं का योगदान रहा है जिन्होंने आज़ादी के लिए महिला शरीर को आधार
नहीं बनाया. स्वयं को उत्पाद बना कर, देह को आधार बना कर नारी
सशक्तीकरण की चर्चा बेमानी सी प्रतीत होती है. खुद महिलाओं को ही विचार करना होगा कि
बाजारवाद के इस दौर में स्वयं को वस्तु सिद्ध करती नारी किस स्वतन्त्रता, किस सशक्तीकरण की बात कर रही है? इस ओर विचार स्त्रियों
को ही करना होगा क्योंकि पुरुष वर्ग द्वारा किया गया विचार नारीवादी समर्थकों को ढकोसला
ही दिखायी देगा.
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