11 फ़रवरी 2016

उठो नागरिको



देश में रहकर देशविरोधी नारे लगाये जाना किसी भी रूप में स्वस्थ मानसिकता, स्वस्थ विचारधारा का सूचक नहीं है. जैसा कि खुलकर सामने आया है कि देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में एक आतंकवादी को शहीद घोषित करते हुए आयोजन किया गया. इस आयोजन में न केवल कश्मीर की आज़ादी सम्बन्धी नारे लगाये गए वरन भारत की बर्बादी के, उसके मुर्दाबाद के नारे भी लगाये गए. ऐसे आयोजनों को, ऐसे प्रदर्शनों को महज विरोधी स्वर कहकर अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए. देखा जाये तो यही वे बिंदु होते हैं जो संगठित होते-होते एक बड़ा समुच्चय बना लेते हैं. देश की राजधानी में उठा ऐसा कदम कदापि नजरअंदाज़ करने योग्य नहीं है. इसके पीछे मूल कारण ये है कि किसी भी देश की राजधानी पर न केवल सम्बंधित देश के लोगों की वरन समूचे विश्व समुदाय की दृष्टि केन्द्रित होती है. ऐसी स्थिति में ये घटना विकराल इस कारण से भी है क्योंकि ये एक विश्वस्तरीय शैक्षिक संस्थान में संपन्न हुई, एक आतंकवादी के समर्थन में संपन्न हुई है. सरकार को, शासन-प्रशासन को इस मामले में कठोर कार्यवाही करने की आवश्यकता है क्योंकि यदि इस घटना को महज घटना मानकर विस्मृत कर दिया गया तो भविष्य में इसके और विकराल रूप धारण करने की आशंका है.
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यहाँ ध्यान देना होगा कि ऐसी घटनाओं से किसी भी देश की छवि को नकारात्मकता प्राप्त होती है. समझना होगा कि अभी कुछ दिन पहले हैदराबाद के एक छात्र की आत्महत्या को भी इस रूप में प्रसारित किया गया जैसे कि भारत सरकार छात्र-विरोधी है, दलित-विरोधी है. जबकि इस मामले में स्पष्ट हो चुका है कि वो और उसके अन्य साथी एक आतंकी की फाँसी का विरोध कर रहे थे और उसकी मौत के बाद घर-घर में उस जैसा आतंकी पैदा होने की नारेबाजी कर रहे थे. इसके बाद अब ऐसी घटना के सामने आने से निश्चित ही एक नकारात्मक सन्देश समाज में जाता दिखता है. ऐसा लगता है जैसे देश में सरकार का कोई नियंत्रण नहीं रह गया है. यहाँ जब जिसकी मर्जी होती है वो अपने अनुसार अपने-अपने आदर्श स्थापित करने लग जाता है. जब जिसकी मर्जी होती है वो देश-विरोधी गतिविधियों में खुलेआम संलग्न होने लगता है. जब जिसका मन होता है वो देश-विरोधी ताकतों से मिलकर सरकार विरोधी कार्यवाही को अंजाम देने लगता है.
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ऐसे में एक आतंकवादी को शहीद घोषित करते हुए देश-विरोधी नारे लगाये जाने को तथाकथित रूप से उन संगठनों की अप्रत्यक्ष सजगता समझा जाना चाहिए जो किसी न किसी रूप में सरकार के विरोध में अपने कार्य करते रहते हैं. स्पष्ट है कि ऐसे संगठनों के लिए, ऐसे व्यक्तियों के लिए देश का कोई महत्त्व नहीं है. यदि उनके लिए देश का महत्त्व किसी भी रूप में होता, देश-हित का कोई अर्थ होता, देश-विरोधी ताकतों के विरोध में खड़े होने का मन होता तो ऐसे लोगों द्वारा देश को कमजोर करने वाले कार्यों में संलिप्त न हुआ जाता. सरकार का विरोध करना लोकतान्त्रिक कदम माना जा सकता है किन्तु जिस तरह से अब घटनाओं को सांप्रदायिक रंग देने का प्रयास किया जाने लगता है, किसी भी घटना को दलित विरोधी बताकर प्रचारित किया जाने लगता है, किसी भी घटना पर देश-विरोधी प्रदर्शन किये जाने लगते हैं वे कदापि स्वीकार्य नहीं होने चाहिए. ऐसी घटनाओं पर न केवल शासन-प्रशासन को, न केवल सरकार को वरन नागरिकों को भी सचेत रहने की, सजग रहने की आवश्यकता है. शासन-प्रशासन, सरकार अपने स्तर पर कार्यवाही तो करे ही नागरिकों को भी ऐसी देश-विरोधी ताकतों के खिलाफ सामाजिक तिरस्कार का अभियान चलाया जाना चाहिए. यहाँ सवाल महज सरकार का नहीं वरन देश का है और किसी भी नागरिक को समझना-जानना होगा कि जब बात देश की हो, देश-हित की हो अथवा देश-विरोध की हो सबको संयुक्त रूप से, पूर्वाग्रह से रहित होकर एकजुट होना ही चाहिए, एकजुट होना ही पड़ेगा.


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