08 जनवरी 2016

पठानकोट और मालदा के संकेत


नववर्ष आते ही देश में एकदम से भूचाल ला देगा, इसका कतई अंदाज़ा नहीं था. मात्र एक सप्ताह के भीतर ही देश में दो अलग-अलग घटनाओं के चलते हलचल मच गई. पठानकोट में आतंकी घुसपैठ और पश्चिम बंगाल के मालदा में साम्प्रदायिक हिंसा. पठानकोट की आतंकी घटना ने जहाँ एक तरफ हमारी सुरक्षा व्यवस्था को आईना दिखाया है वहीं पाकिस्तान के साथ शांति-वार्ता जैसी पहल की आशंका को भी चकनाचूर सा किया है. ऐसा इसलिए क्योंकि चंद रोज पहले ही देश के प्रधानमंत्री ने एकाएक पाकिस्तान की यात्रा करके सबको भौचक कर दिया था. उनकी इस औचक यात्रा के साये में उपजे कुछ हलके-फुल्के पलों और उसके बाद की गतिविधियों के चलते ऐसा महसूस हो रहा था जैसे कुछ सकारात्मक कदम उठें. हालाँकि पाकिस्तान अपनी आदतों से बाज़ आने वाला नहीं था, ऐसा मानना था तथापि एक नई पहल हो इसकी गुंजाईश से इंकार भी नहीं किया जा सकता था. देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पाकिस्तान की उस औचक यात्रा के अपने निहितार्थ निकाले जा सकते हैं, जो पाकिस्तान की, वहाँ की सेना की आतंकवाद के सापेक्ष असलियत को ही उजागर करते हैं.
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देखने और सोचने की बात है कि मोदी जी जितनी देर पाकिस्तान में ठहरे, उतनी देर पाकिस्तान में कहीं से भी किसी आतंकी घटना की खबर नहीं आई, वहाँ कहीं भी कोई बम नहीं फूटा. इसके साथ-साथ भारत में कहीं से भी किसी पाकिस्तान समर्थित आतंकी संगठन ने अपनी कोई गतिविधि अंजाम नहीं दी. जबकि ये सर्वविदित है कि मोदी जी पाकिस्तान-समर्थित आतंकवादियों की हिट-लिस्ट में सबसे ऊपर हैं. स्पष्ट है कि मोदी जी की सुरक्षा व्यवस्था चौकस रखने की मजबूरी और मोदी जी को मिलते अंतर्राष्ट्रीय समर्थन के चलते उनके पाकिस्तान में रहने के दौरान वहाँ के हुक्मरान, वहाँ की सेना, वहाँ के सत्ताधीश लोगों ने किसी न किसी तरह आतंकी कार्यवाहियों को नियंत्रित किये रखा. इस घटनाक्रम ने सम्पूर्ण विश्व में एक सन्देश भी प्रसारित किया था कि यदि पाकिस्तान की सेना, वहाँ के सत्ताधारी यदि चाह लें तो कोई भी आतंकी संगठन एक बम धमाका भी नहीं कर सकता है. ऐसे में यात्रा के तत्काल बाद ही पठानकोट पर आतंकी हमला सारी कहानी स्पष्ट करता है. ये कहीं न कहीं आतंकियों की वो खीझ है जो मोदी जी की यात्रा के बाद उपजी है, एक तरह की हताशा है जो कहीं न कहीं पाकिस्तान के कुछ उदार कदमों के उठाये जाने की सम्भावना से उपजी होगी.
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इस बाहरी हमले के साथ-साथ पश्चिम बंगाल में मालदा में हुए हिंसात्मक प्रदर्शन ने भी हमें डराया है. पूरे दिन लाखों मुस्लिम उन्मादी सडकों पर उत्पात मचाते रहे, निजी, सार्वजनिक संपत्ति को लूटते, मिटाते, जलाते रहे, पुलिसवालों को, मासूम नागरिकों को मारते रहे किन्तु उनको नियंत्रित करने कोई आगे नहीं आया. मजहबी उन्माद का इससे भयंकर उदाहरण और क्या होगा जबकि लगभग ढाई लाख मुस्लिमों ने बेख़ौफ़ उत्पात मचाना आरम्भ कर दिया. ये समझने वाली बात है कि कल को देश में यदि कोई बड़ा आतंकी हमला हो जाये और उसी समय देश में कई-कई जगहों पर मालदा जैसी स्थितियाँ पैदा हो जाएँ तो सुरक्षा, शांति व्यवस्था को संभालना किसी भी सरकार के लिए परेशानी का सबब बन जाएगी. इससे भी भयावह स्थिति ये रही कि उत्तर प्रदेश के दादरी में अख़लाक़ के साथ हुई घटना को मीडिया ने जिस तरह से वैश्विक स्तर पर उभार दिया था; देश के कथित धर्मनिरपेक्ष लोगों ने पुरस्कार/सम्मान वापसी का घृणास्पद कार्य करना शुरू कर दिया था; गैर-भाजपाई राजनैतिक दलों ने जिस तरह से वैमनष्यतापूर्ण बयानबाज़ी की थी वे सब मालदा की हिंसा पर शांति धारण किये रहे. तुष्टिकरण की नीति राजनीति से निकल कर अब समाज में, मीडिया में जिस तरह से फ़ैल रही है वो भविष्य के लिए घातक संकेत है.
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फ़िलहाल तो पठानकोट का आतंकी हमला कई सवाल छोड़ गया; मालदा की साम्प्रदायिक हिंसा ने भी कई सवाल छोड़े हैं किन्तु अब इनको अनदेखा किया जाना राष्ट्रहित में नहीं होगा. सरकार के लिए जितना आवश्यक बाहरी आतंकी ताकतों से लड़ना है उससे कहीं अधिक आवश्यक आंतरिक ताकतों से निपटना भी है. ये आंतरिक आतंकी ताकतें अलग-अलग, नामालूम से स्वरूप में हमारे तंत्र के साथ मिली-जुली हैं और यही कारण है कि इनके द्वारा कभी पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाये जाते हैं कभी पाकिस्तान के, कभी आईएसआईएस के झंडे फहराए जाते हैं, कभी भारत मुर्दाबाद का शोर उठाया जाता है, कभी तिरंगा जलाया जाता है. ऐसे में स्पष्ट रूप से संकेत स्वतः मिलता है कि अब शांति और ज्यादा देर तक नहीं, अब धैर्य बहुत समय तक नहीं. पठानकोट में शहीद सैनिकों को, मालदा के हिंसात्मक प्रदर्शन में मारे गए मासूम नागरिकों को विनम्र श्रद्धांजलि के साथ यही कामना कि सबकुछ जल्द सही हो.

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