किसी भी समाज की विकासमान स्थितियों के लिए अनिवार्य
अवधारणा ये है कि समाज में आपस में सद्भावना, सुरक्षा-सहयोग की भावना होनी चाहिए.
वर्तमान में समाज में जिस तरह से स्थितियाँ निर्मित हो रही हैं उसमें भय का
वातावरण निर्मित होता अधिक दिख रहा है. इंसान-इंसान के बीच अविश्वास बहुत तेजी से
बढ़ता दिख रहा है. आपस में सद्भाव की जबरदस्त कमी देखने को मिल रही है. ये और बात
है कि सार्वजनिक मंच से किसी भी राजनैतिक दल द्वारा, किसी भी सरकारी प्रतिनिधि के
द्वारा, किसी भी संगठन के द्वारा भले ही आपसी भाईचारे की, आपसी सद्भाव की, समानता
की, प्रेम की, बंधुत्व की बात की जाती हो किन्तु सत्यता यही है कि सामाजिक परिवेश
में सब एक-दूसरे से घबराये हुए हैं. जिस तरह से किसी भी छोटी से छोटी घटना को
वैश्विक रूप देकर तूल देकर वैमनष्यता को बढ़ा दिया जाता है; जिस तरह से बड़ी से बड़ी
घटना को नजरंदाज़ करते हुए पूरी तरह विस्मृत कर दिया जाता है, संज्ञान में ही नहीं
लिया जाता है वह अपने आपमें दुखद है. अभी हाल के दिनों में देश ऐसी घटनाओं से
दो-चार हुआ है और इसका सीधा सा असर यहाँ के निवासियों पर पड़ा है; आपसी भाईचारे पर
पड़ा है; आपसी सद्भावना पर पड़ा है.
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ये सारी स्थितियाँ किसी न किसी रूप में राजनैतिक
तुष्टिकरण, राजनैतिक महत्त्वाकांक्षा की परिणति के रूप में सामने आई हैं. और
विद्रूपता ये है कि जिस राजनीति को किसी भी देश, समाज के लिए अनिवार्य अंग समझा
जाता है, जिस राजनीति के बिना देश, समाज का परिचालन संभव नहीं उसी राजनीति को बुरी
तरह से विकृत करके स्वार्थपूर्ति की जा रही है. उसी राजनीति को न केवल राजनैतिक व्यक्तियों
द्वारा विद्रूप किया जा रहा है वरन ऐसे लोगों द्वारा भी विकृत किया जा रहा है
जिनको राजनीति को, समाज को, नागरिकों को दिशा देने की महती जिम्मेवारी सौंपी गई
है. ऐसे साहित्यकारों, लेखकों, समाजसेवियों, शिक्षकों, अधिवक्ताओं, पत्रकारों आदि
के समूचों द्वारा अपने आपको तुष्टिकरण की राजनीति में शामिल कर लिया गया है. इसके
चलते समाज में कई-कई खाँचे बन गए हैं जो अपने-अपने वर्गों का प्रतिनिधित्व करते
हुए समाज में वैषम्य पैदा करने में लगे हुए हैं.
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जहाँ समाज में ऐसे लोगों द्वारा रौशनी लाने की, प्रकाश
फ़ैलाने की संकल्पना निर्धारित की गई थी वहाँ ये लोग किसी न किसी रूप में अंधकार
फ़ैलाने में लगे हैं. एक ऐसे समाज में जहाँ छोटी से छोटी बात पर दंगा होने जैसी
स्थितियाँ निर्मित होने लगें; जहाँ इंसान को महज शक के कारण मौत के घाट उतार दिया
जाये; जहाँ अपनी हवस के चलते मासूम बच्चियों को शिकार बनाया जाने लगा हो; जहाँ
शहीदों को, सैनिकों को भी राजनैतिक तुष्टिकरण के चलते अपमानित किया जाता हो; जहाँ
देशहित का कोई मोल न दिखता हो वहाँ कैसे कल्पना की जाये कि लोगों में सद्भाव
रहेगा, लोग शांति से जीवन निर्वहन करेंगे. वर्तमान में समाज में जिस तरह से धर्म,
मजहब, जाति, क्षेत्र, वर्ग, संगठन के नाम पर अलग-अलग समूह से निर्मित हो गए हों वहाँ
सद्भावना से अधिक वैमनष्यता; शांति से ज्यादा अशांति; सुरक्षा से अधिक भय; अपनत्व
से ज्यादा बेगानापन; इंसानियत से ज्यादा हैवानियत; समर्पण से ज्यादा स्वार्थ;
सहयोग से ज्यादा असहयोग दिखाई देने लगा हो वहाँ रौशनी के स्थान पर अंधकार फैलते
देर नहीं लगनी है. ये और बात है कि आधुनिक उपकरणों, आधुनिक तकनीक, भौतिकतावादी
चकाचौंध, तुष्टिकरण के अंधे दौर में इस अंधकार को फैलाते देख न पा रहे हों किन्तु
जिस तरह की घटनाएँ विगत कुछ वर्षों से समाज में जन्मी हैं वे सिर्फ और सिर्फ
अंधकार को ही प्रदर्शित कर रही हैं.
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आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन - लोहड़ी की लख-लख बधाईयाँ में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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