प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मन
की बात कि ‘शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों के लिए विकलांग की जगह दिव्यांग शब्द
का उपयोग किया जाये’ उनकी व्यापक सोच का परिचायक है. उनकी इस सोच को परिलक्षित
करती है कि वे समाज में विकलांगों के साथ होते आ रहे भेदभाव से भली-भांति परिचित
हैं. इसी भेदभाव को दूर करने की दृष्टि से उन्होंने शारीरिक रूप से अक्षम
व्यक्तियों के लिए ‘दिव्यांग’ शब्द का प्रयोग करने की बात कही. यहाँ एक बात गौर
करने लायक है कि समाज के भीतर जिस तरह की मानसिकता विकलांगजनों को लेकर बनी हुई है
अथवा उनके साथ जिस तरह का व्यवहार देखने को मिलता है क्या वो समस्या महज एक शब्द
को बदल देने भर से दूर हो जाएगी? इससे पहले भी सरकारी स्तर पर शारीरिक अक्षम लोगों
के लिए शब्दों में परिवर्तन किये जाते रहे हैं, कभी निःशक्तजन के रूप में तो कभी
विकलांगजन के रूप में मगर सामाजिक रूप से, सरकारी रूप से विकलांगों के प्रति सोच
में परिवर्तन देखने को नहीं मिला है. भेदभाव की एक अलग सी स्थिति उनके साथ हमेशा रही
है. कहीं उनके साथ दया का भाव होता है तो कहीं उनके साथ तिरस्कार जैसी स्थिति
देखने को मिलती है. इन स्थितियों में किंचित मात्र परिवर्तन शारीरिक अक्षम लोगों
की खुद की सामाजिक, आर्थिक, पद-प्रतिष्ठा वाली स्थिति के चलते अवश्य हो जाता है
किन्तु समग्र रूप में वे समाज के लिए विकलांग ही होते हैं, दया-दृष्टि के,
हेय-दृष्टि के पात्र होते हैं.
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प्रधानमंत्री का ‘दिव्यांग’ के साथ
उनको दिव्यता का भाव प्रदान किये जाने का निहितार्थ भले ही विकलांगजनों के साथ हो
रहे भेदभाव को दूर करना हो, भले ही उनको महज कृपा-पात्र न समझने का भाव रहा हो
किन्तु सत्यता यही है कि मात्र शब्द परिवर्तन से कुछ नहीं होने वाला है. शाब्दिक
रूप से दिव्यता का बोध कराने का ये कोई पहला उदाहरण नहीं है. इससे पहले भी हमारे
समाज में अनादिकाल से स्त्रियों के लिए ‘देवी’ शब्द चलन में है, इसके बाद भी
बहुतायत में महिलाओं की स्थिति को दैवीय रूप में स्वीकार ही नहीं किया गया है.
बहुसंख्यक महिलाएँ आज भी तिरस्कृत सी हैं, शारीरिक अत्याचार सह रही हैं, शोषण का
शिकार हो रही हैं. शाब्दिक रूप से दिव्य-भाव का बोध कराने के लिए, भेदभाव,
तिरस्कार से बचाने के लिए शूद्रों के लिए ‘हरिजन’ शब्द चलन में लाया गया. इसके बाद
भी उनके साथ भेदभाव में कमी नहीं आई, उनकी सामाजिक स्थिति में जो भी परिवर्तन आया
वो ‘हरिजन’ शब्द के कारण नहीं वरन संवैधानिक रूप से मिले आरक्षण के कारण आया. ऐसे
में विकलांगजनों को शाब्दिक दिव्यता बोध करवाने के बजाय आवश्यक है कि सामाजिक रूप
से लोगों के भावों में परिवर्तन किया जाये. लोगों की मानसिकता में परिवर्तन किया
जाये ताकि वे किसी भी विकलांगजन को दया की दृष्टि से, तिरस्कार की नजर से, कृपा
करने के भाव से न देखें.
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जहाँ तक सवाल दिव्य-भाव के बनाये
जाने से लोगों की मानसिकता में परिवर्तन आने का है तो ये नितांत भ्रामक संकल्पना
है. महज शाब्दिक रूप से दिव्य भाव जागृत हो रहे होते तो समाज में महिलाओं के साथ
दुर्व्यवहार न होता. ये अपने आपमें सत्य है कि जब कोई भी व्यक्ति अपने कार्यों से,
अपनी सेवाओं से, अपने विचारों से अनूठा कार्य करता है तो उसकी उपलब्धियाँ स्वतः ही
उसको देवत्व का भाव प्रदान कर देती हैं, स्वयं ही उसको विशिष्ट बना देती हैं. ऐसा
न केवल शारीरिक रूप से सामान्य व्यक्तियों के साथ वरन शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों
के साथ भी हुआ है, जबकि उनकी उपलब्धियों के आधार पर समाज ने उनको देवत्व का बोध
कराया है. वैसे व्यक्तिगत रूप से हमारा मानना है कि समाज में अकारण ही किसी
व्यक्ति में, वर्ग में विशिष्ट का, देवत्व का भाव स्थापित कर देना भी समस्या को
जन्म देता है. बेहतर हो कि व्यक्ति को व्यक्ति के भाव से देखा-समझा जाये. विकलांग
को महज इस कारण से कृपा का पात्र न माना जाये कि वो अपने किसी शारीरिक अंग के कारण
सामान्य रूप से परिचालन नहीं कर पा रहा है. किसी भी शारीरिक अक्षम व्यक्ति को महज
इस कारण तिरस्कृत नहीं किया जाना चाहिए कि वो विकलांग होने के साथ-साथ आर्थिक रूप
से अक्षम है. किसी भी विकलांग व्यक्ति को मिल रही सुविधाओं पर ये भान नहीं करवाया
जाना चाहिए कि ऐसा करके समाज अथवा सरकार उसके ऊपर कोई एहसान कर रही है. ये हम सभी
समझते हैं कि शारीरिक रूप से किसी भी अंग से अक्षम व्यक्ति को सामान्य जीवन व्यतीत
करने में कुछ न कुछ कष्ट अवश्य ही होता होगा ऐसे में किसी भी तरह की सहायता उसके
ऊपर एहसान नहीं वरन समाज की मुख्यधारा में उसको शामिल किये जाने का प्रयास मात्र
होता है. ऐसे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ‘दिव्यांग’ शब्द की दिव्यता, उसके
भावार्थ को समझते हुए विकलांगजनों को समाज की मुख्यधारा में शामिल करने हेतु, उनके
साथ भेदभाव ख़तम करने हेतु निर्विकार भाव से कार्य करें और स्वयं में दिव्यता बोध
जागृत करें, स्वयं को दिव्य महसूस करें.
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किसी भी बात को देखने के दो नज़रिए होते हैं सकारात्मक और नकारात्मक ...अफ़सोस कि लोगों को इस दिव्यांग शब्द से भी दिक्कत सिर्फ इसलिए हो रही है क्योंकि ये एक व्यक्ति द्वारा सुझाया गया है जिसके प्रति अभी बहुत से लोगों का पूर्वाग्रह से ग्रस्त होना जारी है | सटीक और सामयिक पोस्ट राजा साहेब
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