समापन के पहले ही आगमन की तैयारी
देखकर हरिवंशराय बच्चन जी की पंक्ति ‘आने के साथ ही जगत में कहलाया जाने वाला’ याद
आ जाती है. ये आयोजन किसी के समर्थन में नहीं होगा, ये आयोजन कोई साधारण आयोजन नहीं
होगा बल्कि ये स्वागत होगा एक और नए वर्ष
का. जिन आँखों ने किसी की मौत पर आँसू बहाए होंगे उन आँखों में नए साल की रात मादकता
तैर रही होगी; जो हाथ किसी
की सहायता के लिए उठे थे वे लड़खड़ाते जिस्म संभालने को आतुर हो रहे होंगे; जिन होंठों से किसी
शोषित को न्याय दिलाने की आवाज़ उठी थी वे लरजते होंठों से मिलन को मचल रहे होंगे.ये
सोचना दुखद है कि एक झटके में दुःख, दर्द को बिसराकर अपने में सिमट जाने का हुनर हम भारतीयों
में कब से, कैसे आ गया? हमारी आदर योग्य वसुधैव
कुटुम्बकम की अवधारणा की जगह एक मैं और एक तू की संकल्पना ने कैसे जन्म ले लिया? पता ही नहीं चला
कि कब यहाँ मानसिक आकर्षण से इतर शारीरिक निकटता को प्रमुखता मिल गई? इन सबके बीच
कई बार ये संशय भी उभरता है कि क्या हम वाकई आभासी रिश्तों, संबंधों की इमारत
तैयार करने में लगे हुए हैं? क्या वाकई में हमारे लिए संवेदनाओं, शुभकामनाओं, मंगलकामनाओं आदि का
कोई मोल नहीं रह गया है? औपचारिकताओं
में सिमटती जा रही जिंदगी में क्या सिर्फ औपचारिकता का ही समावेश रह गया है? क्यों साल-दर-साल
अनेकानेक शुभकामनाओं का आदान-प्रदान करने के बाद भी हम सब सुखों, खुशियों से कोसों
दूर है? ऐसे में हर
बार नववर्ष का आयोजन समझ से परे रहता है. लाख समझने की कोशिश के बाद भी नाकामी ही हाथ
लगती है और ऐसे आयोजनों का औचित्य समझ नहीं आता है. बहुत-बहुत कोशिशों बाद भी नया वर्ष
न तो दर्द को समाप्त कर पाता है, न ही दर्द को कम कर पाता है. कभी आतंकी गतिविधियाँ, कभी महिलाओं के साथ
ज्यादती, कभी बच्चियों
के साथ ह्रदयविदारक घटनाएँ दिल को दहला देती हैं. इन घटनाओं के बाद ऐसे आयोजनों का
शोर-हुल्लड़-उमंग-उत्साह फौरी तौर पर निपट औपचारिक दिखाई देता है. दुखों का, दर्द की एक छोटी सी
लहर सुखों के, खुशियों के
पहाड़ को भी नेस्तनाबूत कर देती है किन्तु?
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किन्तु क्या... किन्तु तो किन्तु है, कल भी था, आज भी है और कल भी
रहेगा. इस किन्तु-परन्तु के बीच सत्यता को स्वीकार करते हुए इस तरह के आयोजनों की
सार्थकता को सिद्ध करना होगा. हम सब यदि वाकई में नववर्ष को यादगार बनाना चाहते हैं; यदि सच में हम सब
इंसानियत के लिए कुछ करना चाहते हैं तो हमें नववर्ष के आयोजन मात्र नहीं करने चाहिए.
समाज को दिशा देने वाले, इंसानियत
को सशक्त करने वाले, पर्यावरण
को सुधारने वाले, व्यवस्था
को सुदृढ़ करने वाले कार्यों को अपनाना होगा. संकल्प लेना होगा कि जिस पर्यावरण के
सहारे हम जीवित हैं, उसको मिटाने
का काम नहीं करेंगे. यदि हम अपने आपको सभ्य कहने का दम भरते हैं तो महिलाओं के प्रति
हिंसात्मकता न दिखाते हुए इसे सत्य भी करेंगे. किंचित स्वार्थ में पड़कर बेटियों के
प्रति दुर्व्यवहार नहीं करेंगे. संस्कार, संस्कृति हमारी पहचान का मूल है, इस कारण आने वाली
पीढ़ी को सभ्य-संस्कारी बनाने को संकल्पित रहेंगे. परिवार जैसी महत्वपूर्ण इकाई में
आ रहे विध्वंस को रोकने की कोशिश से, दाम्पत्य जीवन में आ रहे बिखराव को रोकने से, आपसी विश्वास, सहयोग की भावना पैदा
करने से, रिश्तों की
गरिमा को बनाये रखकर भी हम नववर्ष के आयोजन को सम्पन्न कर सकते हैं. दूसरों के लिए
न सही कम से कम अपनों की खुशी के लिए चन्द सकारात्मक कदम उठाकर हम रोज नववर्ष का आनन्द
उठा सकते हैं. बस इस एहसास को समझने की जरूरत है, अपनों को करीब लाने की जरूरत है, समाज के लिए जागने
की जरूरत है.
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देखा जाये तो नववर्ष महज कैलेण्डर
परिवर्तन का प्रतीक है, महज एक और दिन के उदय होने का सूचक है, एक और कालखंड
व्यतीत हो जाने का द्योतक है. ऐसे सूचकों के लिए, संदेशों के लिए, प्रतीकों के लिए
सामजिक विसगतियों को विस्मृत कर देना, मानसिक शांति को क्लेश में बदल देना,
स्वार्थ में लिप्त रहकर सारी संवेदनाओं को तिरोहित कर देना कहीं से भी उचित प्रतीत
नहीं होता है. ये अपने आपमें नितांत सत्य है कि मरना-जीना अत्यंत प्राकृतिक है, आना-जाना एक
सार्वभौमिक प्रक्रिया है और इस प्राकृतिक चक्र के लिए दुनिया का परिचालन रुकता नहीं
है. ये भी सत्य है कि दिन की रौशनी से रात को गुलजार नहीं किया जा सकता और रात के अंधेरों
को कालिख बनाकर दिन के उजालों में नहीं पोता जा सकता है. लोग कल भी मरते थे, लोग आज भी मर रहे
हैं, लोग कल भी
मरते रहेंगे. मोमबत्तियाँ जलाने वाले हर कालखंड में मिलेंगे, श्रद्धा-सुमन प्रत्येक
वर्ष अर्पित किये जाते रहेंगे, श्रद्धांजलियाँ जीवन के साथ-साथ चलती रहेंगी. सीधा
सा अर्थ है कि शोक के साथ हर्ष का साम्य ही ज़िन्दगी की जीवन्तता की निशानी है. तो...
तो फिर... जस्ट चिल यार... कम ऑन कूल ड्यूड.... शो मस्ट गो ऑन, कल जिन हाथों में
मोमबत्तियाँ-तख्तियाँ थी,
आज छलकते जाम होंगे, मदमस्त-लड़खड़ाते
बदन होंगे; कल जो होंठ
चीख रहे थे न्याय के लिए,
आज वो आपसी जुगलबंदी में मगन होंगे. कल जो-जो हो रहा था, वो कल फिर-फिर होगा...
बस नए वर्ष की रात जश्न ही जश्न होगा, सब कुछ बिसराने का मौसम होगा. सब कुछ
बिसराते हुए, बाँहों में बाँहें डाले, कमर में हाथ डाले थिरकते हुए जोर से ‘हैप्पी
न्यू इयर’ चिल्लाएँ.
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