25 जुलाई 2015

बेदम कांग्रेस, हताश कांग्रेसी


सत्ता का मोह आसानी से छूटता नहीं वो चाहे नेताओं, मंत्रियों को लगा हो या फिर उनके समर्थकों को. इसे बहुत आसानी से, स्पष्ट रूप में वर्तमान केन्द्रीय विपक्ष, विशेष रूप से कांग्रेस के सन्दर्भ में देखा-समझा जा सकता है. देश की आज़ादी के बाद से लगातार दशकों तक केन्द्रीय सत्ता में विराजमान रही कांग्रेस के लिए ये बहुत ही असहज स्थिति है कि वे महज दो अंक सीटों में संसद में सिमटकर रह गए हैं. अपने इतिहास की सर्वाधिक शर्मनाक पराजय से उबरने, उससे सबक लेने के बजाय उस दल के समस्त नेतागण जिस तरह की हरकतें करने में लगे हैं उससे उनकी हताशा, निराशा ही परिलक्षित होती है. इस हताशा-निराशा का मुख्य कारण उनका सत्ता से हटना तो है ही साथ अपने एकमात्र पारिवारिक नेता का अगंभीर होना भी है. जिस तरह की कार्यसंस्कृति कांग्रेस में विगत वर्षों में जन्मी है उसमें किसी भी वरिष्ठ, बुजुर्ग, कद्दावर नेता के स्थान पर गाँधी-नेहरू पारिवारिक नाम को महत्त्व दिया जाता रहा है. यही कारण है कि समय-समय पर इसके बड़े-बड़े अनुभवी नेता, मंत्री पारिवारिक चाटुकारिता में बयानबाज़ी करते दिखने लगते हैं.
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इधर वर्तमान लोकसभा में निराशाजनक स्थान पाने के बाद कांग्रेस के भीतर से जिस तरह से पार्टी अध्यक्ष बदलने की मुहिम सी चली या चलाई गई उसने भी निराशा-हताशा को बढ़ाया ही है. पार्टी अध्यक्ष के रूप में और लोकसभा चुनाव में मोदी के बरक्श खड़े किये गए राहुल गाँधी भी कांग्रेस में किसी भी तरह की जान डालने में असफल रहे हैं. हास्यास्पद तो वो स्थिति रही जबकि वे स्वयं छुट्टी के नाम पर लम्बे समय तक देश से ही गायब रहे. जबकि उस समयावधि में कई-कई मुद्दों पर वर्तमान अध्यक्ष को सक्रियता दिखानी पड़ी. सोचने-समझने की बात है कि जिस व्यक्ति को पार्टी के लोग, नेता, मंत्री, समर्थक आदि प्रधानमंत्री के दावेदार के रूप में देख रहे हों वो लम्बे समय तक अकारण ही देश से गायब रहे. इसके साथ-साथ हास्यास्पद स्थितियां तब उत्पन्न होती हैं जबकि ऐसे व्यक्ति की तरफ से अनर्गल बयान जारी किये जाते हैं. खुद को गंभीर और सक्रिय दिखाने के फेर में ऐसे व्यक्ति की तरफ से लगातार गलतियाँ होती रहती हैं जो पार्टी की, पार्टी पदाधिकारियों की, समर्थकों की निराशा-हताशा को बढ़ाती ही हैं.
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कुछ इसी तरह की परेशानी, हताशा, निराशा मानसून सत्र से पूर्व और सत्र में देखने को मिल रही है. तमाम सारे ऐसे बिन्दु उठाये जा रहे हैं जिनकी जन्मदात्री कांग्रेसनीत सरकार ही रही है किन्तु अब अतिशय सक्रियता के चक्कर में उनके द्वारा सबकुछ भुला दिया गया है. बहुत पहले की बात न करते हुए महज उस सरकार के विगत दस वर्षों का लेखा-जोखा ही देख लिया जाये तो भ्रष्टाचार के, घोटालों के अनेक मामले सामने दिखने लगते हैं. इन दशाओं में जबकि कांग्रेस के अनेक नेता, मंत्री, समर्थक राहुल गाँधी को अध्यक्ष बनाये जाने की मांग कर चुके हैं, वहीं इसके साथ-साथ पार्टी की तरफ से ही प्रियंका गाँधी को अध्यक्षीय कमान दिए जाने की आवाजें खुले रूप में सामने आ चुकी हैं तब पार्टी को बजाय हल्केपन की राजनीति करने के कुछ ठोस कदम उठाने की जरूरत है. वैसे तो ये बात समस्त कांग्रेसी भली-भांति जानते हैं कि उन्होंने जितनी तीव्रता से, बिना किसी ठोस सबूत के मोदी का, भाजपा का विरोध किया है उसका उत्थान उससे भी अधिक तीव्रता से हुआ है. फ़िलहाल मानसून सत्र चालू है, विपक्षियों सहित कांग्रेस के द्वारा अनर्गल बयानबाज़ी, विरोध भी चालू है. एक वर्ष पूर्व संसद में गतिरोध पर जिस जनधन की बर्बादी की दुहाई ये कांग्रेसी देते थे, आज वे खुद उसी रास्ते पर चल रहे हैं. विरोध हो मगर तथ्यों के साथ न कि महज विरोध के लिए ही. खैर, कांग्रेसी भी बेचारे क्या करें, हाल-फिलहाल तो आगामी चार साल कोई मौका नहीं है सता की मलाई चाटने का, सो विरोध ही किया जायें अनर्गल ही विरोध किया जाये.

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