माह-ए-रमज़ान
अलविदा कहने को तैयार है और बहुत से चर्चा-प्रेमी नागरिक किसी का इफ्तार पार्टी की
दावत देना, किसी का इफ्तार की दावत न देना, किसी का इफ्तार पार्टी में शामिल होना,
किसी का शामिल न होना आदि-आदि की चर्चाएँ करने में लगे हैं. रमजान के आरम्भ होते
ही तमाम राजनैतिक दलों की तरफ से, तमाम राजनेताओं द्वारा, अनेक सामाजिक प्रबुद्ध
किस्म के लोगों की तरफ से इफ्तार का आयोजन किया जाने लगता है. इस तरह के आयोजनों
के मूल में कहीं से भी धार्मिक भावना के दर्शन नहीं होते. देखा जाये तो नितांत
धार्मिक कृत्य कतिपय तुष्टिकरण की नीति के चलते राजनैतिक बना दिया गया है. इफ्तार
के आयोजन करने वालों की मानसिकता में मजहबी सोच, धार्मिक पावनता के स्थान पर
विशुद्ध राजनीति दिखाई पड़ती है. कौन किस नजरिये से शामिल हुआ, कौन किसके बगल में
बैठा, किसने किसकी प्लेट से खाद्य सामग्री उठाई, किसने टोपी पहनी, किसने टोपी
पहनने से मना किया, किसने किसको गले लगाया आदि ऐसी दावतों के केंद्र में छिपा होता
है. एक सबसे बड़ी बात जो यहाँ सामने निकल कर आती है वो ये कि इन दावतों का आयोजन
करने वालों में मुस्लिम समुदाय से कहीं अधिक हिन्दू समुदाय के लोग शामिल रहते हैं.
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भारत
जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में, सर्वधर्म सदभाव की भावना वाले इस देश में ये अच्छी बात
है कि आपसी सदभाव बढ़ाने हेतु ऐसे आयोजन होते रहें. इस अच्छाई के साथ एक बुराई ये
भी दिखती है कि ऐसे सदभाव पसंद राजनैतिक दल, राजनेता, सामाजिक व्यक्तित्व एक धर्म
विशेष पर ही अपनी सद्भावना प्रकट करने आ जाते हैं. ऐसे में सवाल उठाना लाजिमी है
कि धार्मिक सद्भावना दिखाने के लिए किसी भी राजनैतिक दल को, किसी भी राजनेता को
मात्र मुस्लिम समुदाय ही क्यों दिखाई देता है? किसी भी तरह के धार्मिक आयोजन के
लिए मुस्लिम त्योहारों पर ही सबकी निगाह क्यों होती है? आखिर क्यों सभी दलों के
लोग, समाज के प्रबुद्ध माने जाने वाले लोग मस्जिद के पास बधाइयाँ देने को अलस्सुबह
से एकत्र होने लगते हैं? क्यों इन सबमें मुस्लिम समुदाय के लोगों से पहले-पहल गले
मिलने की बेताबी दिखाई देने लगती है? क्यों ऐसे लोगों के लिए एक रोजेदार पावनता का
सूचक होता है? कहीं न कहीं भेदभावपूर्ण ये कदम इन्हीं के द्वारा घोषित गंगा-जमुनी
विरासत को खोखला करने का काम करता है. आखिर हिन्दुओं के तथा अन्य धर्मों के
त्योहारों पर ऐसी तत्परता किसी भी दल में, किसी भी व्यक्ति में नहीं दिखाई देती
है. विजयादशमी, नवदुर्गा, होली आदि हिन्दू पर्वों पर भी लोगों द्वारा व्रत-उपवास
रहा जाता है; मेलों, पर्वों का आयोजन किया जाता है किन्तु किसी भी दल द्वारा, किसी
भी राजनैतिक व्यक्ति द्वारा उनसे गले लगने की, व्रत के पारण करवाए जाने की तत्परता
नहीं दिखाई जाती है. लंगर के आयोजनों में, क्रिसमस के दिन अथवा अन्य गैर-मुस्लिम
पर्व-त्योहारों पर इन सदभाव-प्रेमियों की सक्रियता, सद्भावना कहाँ गायब हो जाती
है?
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इस
लोकतान्त्रिक देश की विडंबना देखिये कि यहाँ मुस्लिम-समर्थन में किये जाने वाले
काम धर्मनिरपेक्षता से परिभाषित किये जाते हैं. राजनैतिक दलों द्वारा, राजनेताओं द्वारा
मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति अपनाये जाने की अपनी ही मजबूरी समझी जा सकती है किन्तु
संवैधानिक पद पर बैठे किसी व्यक्ति द्वारा इस तरह के आयोजन किये जाने के पीछे की
मंशा स्पष्ट नहीं होती है. यदि उसके द्वारा मुस्लिमों के लिए इफ्तार दावत का आयोजन
सामाजिक-धार्मिक सदभाव को बढ़ावा देने में कारगर सिद्ध होता है तो शेष गैर-मुस्लिम
धर्मों के लिए भी उसके द्वारा ऐसे आयोजन किये जाने चाहिए. अब जबकि देश के राष्ट्रपति
द्वारा भी इस तरह के कदम उठाये जा रहे हों तब एक आतंकवादी की फांसी को भी धार्मिक
आधार पर, दलगत आधार पर विवादित किया जाना कोई आश्चर्य का विषय नहीं. कहा तो जाता
है कि आतंकवाद का कोई धर्म, कोई मजहब नहीं होता, यदि ये ही अंतिम और पूर्ण सत्य है
तो फिर एक आतंकवादी का कोई धर्म या मजहब कैसे हो जाता है? इस सवाल के साथ एक कामना
उस परमशक्ति से यह कि माह रमजान मुस्लिम समुदाय के उन सभी लोगों को सद्बुद्धि दे
जो राजनैतिक दलों के, व्यक्तित्व के हाथों में खेल रहे हैं. उन्हें इन राजनैतिक
दलों के हाथों की कठपुतली बनने से रोके. काश! वे इस बात को समझ सकें तो....
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