क्रिकेट का खेल अब
धन का खेल बन चुका है, विवादों का, घोटालों का, भ्रष्टाचार का खेल बन चुका है. ऐसा
कोई एक-दो उदाहरणों से नहीं वरन आये दिन होते नए-नए खुलासों से स्पष्ट होता रहा
है. कभी क्रिकेट खेलने और देखने के परम शौकीनों में शामिल माने जाने वालों में हम
भी रहे और एकाएक उस समय क्रिकेट से मोहभंग हुआ जब मैच फिक्सिंग का एक मामला
अज़हरुद्दीन, हैंसी क्रोनिये आदि के रूप में सामने आया. तबसे क्रिकेट देखना पूरी
तरह से बंद, हाँ, कभी-कभी खुद खेलने की दृष्टि से खेलते रहे. व्यक्तिगत रूप से
हमारे लिए वो खबर अपने आपमें भीतर तक हिला देने वाली थी. उसके मूल में ऐसा नहीं था
कि हमारा किसी तरह का धन सम्बंधित मामले में लगा हुआ था या फिर हमारी संलिप्तता
किसी भी रूप में उस मामले में थी. ऐसा होना इस कारण हुआ क्योंकि खेल को खेल की
भावना का नाम देकर भी, भद्रजनों के खेल के रूप में परिभाषित खेल को भी खिलाड़ियों के
द्वारा ही कलंकित किया गया था. भावनाएं इस कारण से भी आहत हुईं थी क्योंकि एक तरफ
हम निस्वार्थ भाव से इन खिलाड़ियों के पक्ष
में चिल्लाते, नारे लगाते खेल को खेल की भावना से देखते, उसका आनंद उठाते, देश की
जीत पर सारा आसमान सिर पर उठा लेते और हारने पर दुःख के सागर में गोते लगाने लगते
और दूसरी तरफ ये खिलाड़ी बिना दर्शकों की, प्रशंसकों की भावनाओं का ख्याल रखे अपनी
झोली भरने में लगे हुए थे. खेल के सहारे अपनी धनलोलुपता को पूरा करने की रही सही
मानसिकता को आईपीएल ने पूरा कर दिया.
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अपने आरम्भ से ही
आईपीएल में किसी न किसी तरह का विवाद सामने आता रहा है और अब पुनः आईपीएल विवादों
के घेरे में है. टीमों को, खिलाड़ियों को, उनके मालिकों आदि को लेकर उठते विवादों
के बीच हर बार सवाल यही आता है कि क्या इन खिलाड़ियों के लिए खेल से बढ़कर सिर्फ
पैसा हो गया है? यदि ऐसा है तो ये कहीं न कहीं उन करोड़ों प्रशंसकों के साथ
विश्वासघात है जो इन खिलाड़ियों को भगवान सा दर्ज़ा देते हैं; अपने समय, धन की परवाह
न करते हुए इनकी हौसलाअफजाई करने में दिन-रात एक कर देते हैं. ये अपने आपमें
आश्चर्य का विषय है कि समूचे विश्व में चंद देशों में खेले जाने वाले इस खेल में
इतना धन आखिर आता कहाँ से है? भद्रजनों का खेल कहे जाने वाले इस खेल में सट्टेबाजी
का खेल कब और कैसे शुरू हो गया? देश के लिए खेलने वाले खिलाड़ी किस लालच में
सट्टेबाजों के हाथों में खेलने लगे? किसी भी मैच में मैदान में अपना पसीना बहाकर
जीत-हार तय करने वाले खिलाड़ियों का स्थान कब बुकियों ने ले लिया? इन सबके बीच
मालामाल खिलाड़ी होने लगे, बुकी होने लगे, सट्टेबाज़ होने लगे खाली हाथ रहे तो बस वे
दर्शक जो नितांत निस्वार्थ भाव से चिल्लाते हुए, शोर मचाते हुए मैच देखने में मगन
रहे. हालाँकि मैच फिक्सिंग का मामला उस समय सामने आया था जबकि आईपीएल का कहीं
नामोनिशान भी नहीं था तथापि क्रिकेट के इस संस्करण ने मैच फिक्सिंग के बजाय
सट्टेबाजी को उभारने में अपनी भूमिका निभाई है.
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ऐसे में जबकि संभ्रांत
माने जाने वाले खेल में अब विवादों का, सट्टेबाजी का साया पूरी तरह से स्पष्ट
दिखने लगा है, तब क्रिकेट प्रशंसकों की अपेक्षा यही होनी चाहिए कि दोषियों पर कठोर
कार्यवाही हो. ये भी किसी बड़े अपराध से कम नहीं है कि खिलाड़ी, टीम प्रबंधक
सट्टेबाजों से मिलकर खेल में अपना खेल चालू रखते हुए दर्शकों की, प्रशंसकों की
भावनाओं से खिलवाड़ करें. ये और बात है कि इतने विवादों के बाद भी, आईपीएल जैसे
संस्करण को देश में लाने वाले ललित मोदी के विवादित होने के बाद भी, कई-कई
खिलाड़ियों की संलिप्तता के बाद भी, टीम-प्रबंधकों की मिलीभगत के बाद भी दर्शकों,
क्रिकेट प्रशंसकों के सिर से इसका बुखार उतरा नहीं है. वे अभी भी खिलाड़ियों को
भगवान मानकर उन्हें सर्वोच्च स्थान दिए हैं, वे अभी भी मैच को लेकर अपनी दीवानगी
की हद तक जाने को तैयार रहते हैं, वे अभी भी अपने समय-धन का अपव्यय करके सट्टेबाजों
द्वारा निर्धारित खेल का हिस्सा बनने को तैयार रहते हैं. बावजूद इसके संजय
मांजरेकर की टिप्पणी कि ‘क्रिकेट में प्रशंसकों का भरोसा कायम रखने के लिए जो कुछ
किये जाने की जरूरत हो वो किया जाना चाहिए’ और पूर्व कप्तान बिशन सिंह बेदी का
कहना कि ‘जस्टिस मुदगल कमेटी के निष्कर्षों के बाद लोढ़ा कमेटी ताज़ा हवा का झोंका
है’ अपने आपमें क्रिकेट के, आईपीएल के अंधकारमय, दुर्भाग्यपूर्ण, निराशाजनक माहौल
में एक तरह की आश्वस्ति सी जगाते हैं. शायद क्रिकेट और क्रिकेट के तमाम संस्करण,
खिलाडी, टीम प्रबंधन सट्टेबाजों के हाथों की कठपुतली बनने से बच कर प्रशंसकों में
नए उत्साह का संचार कर सकें.
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