नवदुर्गा
का समापन हुआ, जगह-जगह मैया के दर पर भक्तों की भारी भीड़ देखने को मिली. इसी तरह भगवान
के नाम पर भी भीड़ लगी हुई है. आधुनिकता भरे समाज में जहाँ माता-पिता के लिए आज के
युवाओं के पास समय नहीं है,
वहाँ भगवान के नाम पर जुड़ने वालों की भीड़ अधिक तेजी से बढती जा रही
है. कितना हास्यास्पद है कि एक तरफ सनातन संस्कृति-सभ्यता को फूहड़ता, ढोंग करार
दिया जाता है और दूसरी तरफ उसी के नाम पर इन्हीं लोगों के पास पत्थर की मूर्तियों
को पूजने का समय भी निकल आता है. विद्रूपता ये आती जा रही है कि भगवान के सामने
माथा रगड़ने वालों के पास सुबह-सुबह अपने माता-पिता के चरणों में शीश नवाने का समय
नहीं होता है. मंदिर में भक्तों की लम्बी-लम्बी कतार बहुत कुछ कह जाती है. इधर
देखने में आ रहा है कि माता-पिता बीमारी से परेशान हैं, उनके
इलाज के लिए किसी को फुर्सत नहीं है किन्तु अपने आराध्य को प्रसन्न करने के लिए
सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा भी आसान सी लगती है.
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आजकल
देखने में आ रहा है कि नवयुवकों-नवयुवतियों का मंदिर के प्रति, भगवान के
प्रति, देवी-देवताओं के प्रति एकाएक मोह बढ़ गया है. पब-कल्चर
पसंद करने वाली इस पीढ़ी को अचानक भक्ति का माहौल कैसे और क्यों पसंद आने लगा है?
डिस्को, पॉप, जैज की धुनों पर थिरकती
युवा पीढ़ी आज भजनों पर सिर हिलाती, ताली बजाती, नाचती, झूमती
दिख रही है. सवाल उठते हैं कि क्या वाकई युवा पीढ़ी का रुझान भारतीय संस्कृति की ओर
बढ़ा है? क्या इस पीढ़ी में भगवान के प्रति श्रद्धा-भाव जागृत
हो गया है? या फिर अब लोगों के पास परेशानियों का अम्बार कुछ
ज्यादा ही है जिसका निपटारा वे भगवान से करवाना चाहते हैं? आखिर
लोग इतनी बड़ी संख्या में, ख़ास तौर से युवा, देवी-देवताओं की शरण में क्यों चले आ
रहे हैं? मन
के सवाल पर मन ही जवाब देता है कि अब मंदिर,
देवी-देवताओं की भक्ति का चलन एक शौक बनता जा रहा है. बहुत से लोग
हैं जो अपनी समस्या लेकर जाते हैं किन्तु अधिक से अधिक लोगों का मंदिर जाना शौकिया
तौर पर ही होता दिखता है. मंदिर जैसी पवित्र और पावन जगह, जहाँ
किसी के मन में कलुषित विचारों के आने का सवाल ही नहीं उठता और किसी के द्वारा
किसी भी तरह के हस्तक्षेप का भी सवाल नहीं उठता, उसका उपयोग अपने शौक के लिए करना
समझ से परे हैं, किन्तु ऐसा ही हो रहा है. इसके अलावा आजकल मंदिरों में
नामी-गिरामी लोगों के जाने का भी चलन बढ़ता जा रहा है. कभी कोई कलाकार, कभी कोई उद्योगपति, कभी कोई खिलाड़ी तो कभी कोई नेता
और आश्चर्य देखिये परेशानी का समाधान खोजने, सुख की तलाश में
जाने वाला मंदिर को लाखों, करोड़ों का माल दे जाता है.
मंदिरों की दान-पेटियाँ एक झटके में लखपति-करोड़पति हो जातीं हैं.
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सोचिए
कि लाखों के जेवरात,
धन देने वालों के पास किस तरह की परेशानी होती होगी? परेशानी तो उस के पास है जो छप्पर में लेटा है और सरदी, गरमी, बरसात को अपनी देह पर सह रहा है. परेशान तो वो
है जिसकी फसल नष्ट हो चुकी है, खाने के अन्न का एक दाना है है. परेशानी तो उसके पास है जो उसी मंदिर के बाहर
पड़ा इन धनकुबेरों से दो-चार रुपये देने की गुहार कर रहा है. परेशानी में वह है जो
सुबह घर से निकलता है और शाम को बापस बेरोजगारी की ही स्थिति में बापस लौटता है.
परेशानी में वह है जिसकी बेटी विवाह को बैठी है और उसके पास लाखों रुपये नहीं है
दहेज के लिए. परेशानी में वह है जो पानी की कमी से अपने खेतों की फसल को सूखता हुआ
देख रहा है. परेशानी उसके पास है जो एक समय के भोजन की व्यवस्था भी अपने बच्चों के
लिए नहीं कर सकता है. परेशानी में वह है जो अभी जन्मी ही नहीं और उसको मौत देने की
तैयारी होने लगी है. क्या अब भी आपको लगता है कि ये धनकुबेर और हाथों में हाथ डाले
घूमती हमारी युवा पीढ़ी किसी भक्ति-भाव से देवी-देवताओं के दर्शनों के लिए मंदिर
आदि में जाते हैं? देखा जाये तो आधुनिक युग में मंदिर भी
पर्यटन स्थल के रूप में विकसित हो गये हैं. दो-चार घंटे की घुमक्कड़ी, प्रेमालाप और
सभ्यता-संस्कृति के स्थल पर होने के कारण किसी के संदेह का शिकार भी न बनना. ज़ाहिर
है कुछ ऐसे ही कारणों से आजकल देवी-देवताओं की भक्ति के नाम पर मंदिरों में युवाओं
की भारी संख्या दिखने लगी है.
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